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Saturday, August 14, 2010

Saturday, August 7, 2010

बस कलम चलाते हैं हम तो, बन जाये तो अल्फाज़ बने

आवेदन ही करते हैं, कोई माने तब कोई बात बने
बस कलम चलाते हैं हम तो, बन जाये तो अल्फाज़ बने
अल्फाज़ निराले ऐसे की सुनकर दिल में एक प्यास जगे
जिस प्यास को तृप्ति देने को, पनघट भी घर के पास बने
पनघट ऐसा हो जिस पर, नित बादलवा बरसात करे
छम-छम नाचे मोर मधुर-स्वर, कल-कल पानी साज़ बने
पानी बरसे चाहे आँखों से, चाहे घन घनघोर बरसात करे
बस, देखे जो वह बह जाये, सागर जैसा श्रृंगार बने
सागर-सा गहरा नीला-सा, बस नीलाम्बर हो बाहों में
चंदा जैसा चंचल लहरें, विद्युत रेखा पतवार बने
पतवार बनती है कविता, जख्मों की टीस दवात बने
मौसम भी खिदमतगर बने जब बीते दिन हम याद करे

Tuesday, August 3, 2010

ये दोस्ती...

सदाबहार अभिनेता धर्मेन्द्र सदा ही साफगोई के लिए विख्यात रहे हैं. मुझे याद है बीकानेर के सांसद रहते हुवे उन्होंने यह राय भी दी कि अगर कांग्रेस और भाजपा दोनों मिलकर देश चलाये तो कोई समस्या ही नहीं रहे. हाल ही में उन्होंने इंडियन आइडोल शो के दौरान ऐसी ही साफगोई से कहा जब पूछा गया कि जय और वीरू की जोड़ी आज भी याद की जाती है, लेकिन असल में आज भी जय और वीरू मिलते हैं क्या? इस सवाल का जवाब में उन्होंने कहा '' क्या करूँ वो पीता नहीं है''. धर्मेन्द्र का ये जवाब दोस्ती की साख भरने वाला था. बल्कि दोस्त का कद बढाने के लिए खुद को दांव पर लगाने जैसा था. मैंने ''एकलव्य'' की शूटिग के दौरान बीकानेर आये अमिताभ से भी ऐसा सवाल पूछा था. अमिताभ बच निकले थे. उन से अपने दोस्त धर्मेन्द्र के राजनीति में आने की वजह पूछी गई तो साफ़ कह दिया जो गए हैं उन से पूछें, मैं तो वापस आ गया हूँ.
कहने को आप धर्मेन्द्र को भोला कह सकते हैं. लेकिन अमिताभ बच्चन को चतुर नहीं साबित कर सकते. कौन नहीं जानता की धर्मेन्द्र को बीकानेर में जीतने के बाद हर मोर्चे पर विपरीत हालात मिले. लेकिन रणछोडदास नहीं बने. इस्तीफ़ा नहीं दिया. अपनी कोशिशों से बीकानेर के विकास पर पैसा भी लगाया लेकिन श्रेय हासिल नहीं कर पाए...अमिताभ चतुर होते तो रिश्ते बनाये रखते. दोनों कलाकार हैं, जी रहे हैं अपनी तरह से. एक है जो पीने को हर मुलाकात की शर्त मानता है ताकि कुछ भी निकाले तो इल्जाम दारू पर जाये और दूसरा इसी शर्त के चलते दोस्तों से मिलना भी टाल रहा है. उस के मन में ज़माने के इतने राज़ दफ़न है के चाहता ही नहीं हे के कुछ भी बहर निकल पाए. इसीलिए आवरण पर आवरण ओढ़ रहा है.
काश! दोनों भोले और भले कलाकारों को जो राजनीति के ककहरे में ही असफल हुवे हैं, किसी और बहाने से मिलने का मौका मिल जाये. धर्मेन्द्र-अमिताभ तो बात कहने का जरिया है दोस्तों, इस सन्दर्भ में सोचें, हम ने कितने आवरण ओढ़ रखें हैं. अगर दोस्तों से दूर हो जायेंगे तो बचेगा क्या?

Monday, August 2, 2010

कथित फ्रेंड शिप डे पर सबसे आदर्श कार्यक्रम

विभूति नारायण राय के वक्तव्य पर मचे बवाल को लेकर अभी कुछ मान्यता बना ही पाता की रात को हिंदी के ख्यातनाम साहित्यकारों की लड़ाई देख मन कसैला हो गया. दरअसल, बात पूरी तरह से विरोध के लिए विरोध की थी. ठीक वैसे ही जैसे सामान्यतया होता है. स्टार न्यूज़ की इस पेशकश को मैं कथित फ्रेंड शिप डे पर  सबसे आदर्श कार्यक्रम का दर्ज़ा देता हूँ जिसमे अपने-अपने दोस्तों को बचाने का शानदार उपक्रम किया गया. मुझे नहीं लगता की राय ने जो कहा वो किसी राष्ट्रीय रहस्य से पर्दा उठाने जैसा था. हाँ, सन्दर्भ गलत ले लिए. महिला लेखिकाओं को चोट लगी, यह गलत था, गलत हुआ. उन्हें इस तरह किसी समूह पर टिप्पणी करने के अपने गुप्त  एजेंडे के लिए एक समाज को अपमानित करने का हक़ नहीं बनता.
अपने-अपने सच को जीना गलत नहीं है  लेकिन थोपना निहायत ही गैर जिम्मेदाराना है. राय हो या मैत्रेयी पुष्प. सभी को अपनी बात कहने का हक़ है लेकिन दोनों ही प्रतिबद्ध लेखक हैं इसलिए उन से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि किसी दूसरे की लोकप्रियता से चिढ़ते हुवे, अपनी कुंठा निकाले. वैसे भी हिंदी का कोई खास भला इस तरह के विवादों से नहीं होने वाला हे. कल अगर यह कहना पड़ा के ऐसे लेखकों से भी हिंदी का भला नहीं हो रहा है  तो शायद समूह की सुरक्षा में चल रहे सृजन को बचाने न तो राजेंद्र यादव आयेंगे और ना ही भारत भरद्वाज को सुना जायेगा.
वास्तव में हिंदी का भला करना है तो रचाव पर ध्यान देना होगा. प्रतिबद्ध हो कर लिखना बड़ा दुष्कर है. लेकिन दूसरे के लिखे हुवे की खुद से टोन नहीं मिलने पर चिढना बिल्कुल भी श्रेयष्कर नहीं.