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Friday, October 15, 2010

जो रावण को मारे, वो रिश्वत ना स्वीकारे

दशहरा आने को है। रावण को दहन करने के साक्षी हम बनेंगे। कोई पॉलीटिशियन, कोई ब्यूरोक्रेट्स तीर चलाएगा, राम कहलाएगा और रावण को मार गिराएगा। गूंजेगा चारों ओर जयश्री राम। उन्हें एक दिन का रामत्व मुबारक। बधाई! तो क्या हम मानें कि इस एक दिन जो भी रावण को मारने के लिए आगे आएगा वो रिश्वत की कमाई नहीं खाएगा, भ्रष्टाचार नहीं करेगा, काम की पेंडेंसी नहीं बढ़ाएगा। इतना तो कर ही लो मेरे देश के भाग्यविधाताओं। राम बनने का मौका बिरलों को मिलता है, आपको मिला है तो ऐसे ना गंवाओ।
चलो, जन्मजन्मांतर का संकल्प मत लो। जब तक वर्तमान पद पर हो तब तक का ही सही। अच्छा-अच्छा! ज्यादा लंबा हो जाएगा? छह महीने तो ज्यादा नहीं? यह भी ज्यादा है? ... तो एक महीने, एक पखवाड़ा, एक सप्ताह? अच्छा... यह भी ज्यादा है? तो आप ही बताएं। ...बताना क्या? उस दिन जिस दिन आप राम बनाएंगे। हम पूर्ण शाकाहारी रहेंगे। सच्चे लोकसेवक।   ही...ही...ही...उस दिन सन-डे भी है ना... 

Monday, October 11, 2010

साक्षात्कार अमिताभ का, चुनौती खुद से

वास्तव में उन पलों को बयान नहीं किया जा सकता। जब मैंने अमिताभ बच्चन का साक्षात्कार किया। भास्कर के लिए रिपोर्टिंग करते हुए ऐसे पल कई बार आए। संतोषानंद और निदा फाजली से लेकर टॉम ऑल्टर सरीखी विभूतियों से मिलना हुआ तो गोविंदाचार्य से लेकर धर्मेन्द्र, राज बब्बर जैसे लोगों की दिनचर्या को भी करीब से देखा। ऐसे मौके कई बार आए जब मेरे सामने देश की अनमोल रत्न थे। साहित्य-संस्कृति से लेकर समाज और राजनीति की धारा को प्रवाहमान रखने वाले इन लोगों से मिलने के लिए किए जाने वाले प्रयास और फिर मिलने के बाद उनकी रिपोर्टिंग करने की चुनौती। आज यह सब किस्से-कहानी बन गए हैं। लेकिन आज भी पांच साल पुराना वह वाकया ताजा है तब अमिताभ बच्चन से मिलना हुआ था। बीकानेर के पास दरबारी नाम की लोकेशन पर फिल्म एकलव्य की शूटिंग के लिए उनका आना ही बीकानेर की प्रेस के लिए एक चुनौती था। कैसे उनसे बात होगी? यह सवाल यक्ष प्रश्न था। भास्कर लगातार शूटिंग रिपोर्ट छाप रहा था। विधु विनोद चौपड़ा, प्रदीप सरकार जैसे लोगों की रिपोर्ट भी फीकी थी क्योंकि पाठक अमिताभ बच्चन का इंटरव्यू चाहते थे। 13 अक्टूबर 2005 को सुबह-सुबह मैं, हमारे फोटो जर्नलिस्ट श्रीराम रामावत और पीटीआई के फोटोजर्नलिस्ट दिनेश गुप्ता दरबारी पहुंंचे। पता चला अमिताभ ने एक सीन कर भी लिया है और अब अपनी वेनिटी वैन में हैं। अमिताभ की वेनिटी वैन के दरवाजे के नीचेे साक्षात्कार की मंशा जताते हुए स्लिप और कार्ड खिसकाया। 15 मिनट में समय मिल गया कि शाम को अमिताभ मुखातिब होंगे। इस शाम का इंतजार हमारे लिए युगों जितना लंबा था। मुझे सुबह से ही लगने लगा था कि यह समय सामान्य नहीं होगा। इस असामान्य समय से सामना करने के लिए मेरे पास सवाल के अलावा कोई हथियार भी नहीं थे।
शाम तक सारे शहर की प्रेस को यह पता चल गया था कि अमिताभ प्रेस से बात करेंगे। शाम को सूर्यास्त के दृश्य के बाद जब अमिताभ फ्री हुए तो दरबारी में लॉ-एंड-ऑर्डर की स्थिति बिगडऩे  की आशंका हो गई। अमिताभ ने कहा, गजनेर पैलेस चलते हैं। वहां बात हुई। तकरीबन 16 मिनट चली लेकिन लगा जैसे वक्त ठहर गया। अमिताभ बीकानेर की प्रेस के सवालों का जवाब धैर्य से देते रहे। कभी-कभी तल्ख भी हुए तो व्यंग्य भी किया। मेरे पास पूरा मौका था कि उन्हें बहुत करीब से महसूस कर सकूं। मेरे सामने वह अमिताभ थे, जिनसे मैं गहरे तक जुड़ा था। उनसे सवाल करने का मौका था। बाबूजी के लोकगीतों पर काम करने से लेकर मैथड़ एक्टिंग, राजनीति, कजरारे जैसे गाने पर ठुमके लगाने सहित खुद की आत्मकथा लिखने जैसे कई सवाल मैंने पूछे। यकीनन, अविस्मरणीय थे वे क्षण।  इंटरव्यू के बाद वाले क्षण तो और भी अद्भुत तब मैं अमिताभ को यह बता सका कि उनकी वजह से ही मैं पत्रकारिता कर रहा हूं। हां, यह सच है कि अमिताभ ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि इस जन्म में तो जितना करना था वह हो गया लेकिन अगला जन्म इंसान के रूप में मिला तो मैं पत्रकार बनना चाहूंगा। अमिताभ को यह बताया तो उन्हें अच्छा लगा। लगभग पौन घंटे में हम गजनेर पैलेस से बाहर थे लेकिन यह समय एक अध्याय बनकर मेरे जीवन में शामिल हो गया।  
हरीश बी. शर्मा 

Sunday, October 10, 2010

सफल आमआदमी, असफल नायक

 

Big-B-with-HBवे एक सफलतम आम आदमी हैं लेकिन एक असफल नायक हैं जिसे हर बार सहारे के लिए ऐसे लोगों को साथ रखना पड़ता है जो वस्तुत: उनके ताप से अपनी रोटी सेंकना चाहते हैं बल्कि सेक भी लेते हैं। आलोचक उन्हें जितना महत्त्वाकांक्षी और अवसरवादी बताते हैं, उनका लाभ लेने की योजना बनाने वाला उनसे भी अधिक होशियार और हुननमंद हैं। लोग उन्हें इसलिए आदर्श मानते हैं क्योंकि ऐसा कहने से आकलन करने वाला दबाव में आ जाता है। लोग उनकी इसलिए आलोचना करते हैं क्योंकि उनकी आलोचना को भी लोग बड़े ध्यान से सुनते हैं। वे इतने ताकतवर हैं कि विदेशों मे स्टेज शो के दौरान भरे मंच से ‘रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप होते हैं…’ संवाद अदा करके दर्शकों की तालियां बटोर सकते हैं और दिलीप कुमार जैसे दिग्गज अभिनेता को अभिनय के दौरान जेब में हाथ डालने पर मजबूर कर सकते हैं लेकिन संघर्ष और उपेक्षा की आग में जलता यह किरदार जैसे ही नायकत्व हासिल करता है, खत्म कर दिया जाता है। फिल्म ‘शक्ति’ में ही ऐसा नहीं होता, कई उदाहरण है जब उन्हें फिल्म को हिट करवाने के लिए मृत्यु का वरण करना होता है। अतिशयोक्ति नहीं होगी अगर यह कहा जाए कि फिल्म की मांग पर नायक को मारने का यह फार्मूला भी उन्हीं की देन है और सच तो यह है कि रील ही नहीं रीयल लाइफ में वे इस फार्मूले के शिकार कई बार बने हैं।
आम आदमी जैसा
राजनीति में आने से लेकर अपनी कंपनी बनाने तक और उसके बाद इनसे तौबा करने की बात करते हुए भी जुड़े रहना उन्हें एक ऐसा आम-आदमी साबित करता है जो अपने सपनों को साकार करने की भरसक कोशिश करता है और यहीं पर आते-आते उनका हीरोइज्म ध्वस्त होता नजर आता है। जोशो-खरोश से ब्लॉग-लेखन शुरू करते हैं और अचानक बंद करने की बात भी कर देते हैं लेकिन करते नहीं हैं। क्या यह तथ्य नहीं है कि प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई जैसे बीसियों निर्देशकों के बाद भी वे आज तक ऋषिकेश मुखर्जी के असहाय ‘बाबू मोशाय’ से आगे नहीं बढ़े हैं। कभी उनके लिए ऋषिकेश मुखर्जी ने कहा था कि उनके अभिनय का दस फीसदी हिस्सा ही अभी तक सामने आया है, नब्बे फीसदी अभी तक अप्रकट है। वह आने के लिए कुलबुला रहा है और इसे प्रकट करने के लिए वे ‘ब्लैक’ भी स्वीकार कर रहे हैं तो ‘कभी अलविदा न कहना’ तक दौड़ लगाते हैं।
उस पर तुर्रा यह कि आलोचक कहते हैं कि उन्हें असली पहचान तो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ से मिली है। उस पर तुर्रा यह है कि सात हिंदुस्तानी फिल्म सिफारिशी थी। उस पर तुर्रा यह कि उन्हें आज भी एंकरिंग नहीं आती। ऐसे में इन तथ्यों का क्या महत्त्व रह जाता है कि उनके लिए मंदिरों की घंटियां बजती है या गिरजाघर में प्रार्थनाएं होती है। क्या महत्त्व रह जाता है कि जब राखी सावंत की मां यह कहते हुए भावुक हो जाती है कि उनकी रिश्तेदार को आर्थिक मदद की थी और क्या महत्त्व है इस बात का जब राजू श्रीवास्तव कहते हैं कि उनकी नकल से घर चल रहा है। ऐसी घटनाओं की फेहरिस्त बनाई जा सकती है जिसके बीच एक आम आदमी अपनी इंसानियत को बचाने की कोशिश में लगा रहता है। जो अपनी सामर्थ्य के अनुसार आस-पड़ौस का ध्यान रखता है। प्रोत्साहन देता है, आगे बढ़ाता है। यकीनन, उन्होंने इस मोर्चे पर सफलता पाई है और यही वजह है कि देश के बड़े राजनीतिक घराने से उनकी टूटन में भी लोग उनका दोष नहीं मानते। विदूषक और अवसरवादी करार दिए जा चुके लोगों के साथ उनके रहने की मजबूरी को भी सहानुभूति से देखते हैं। एक हीरो के लिए यह संभव नहीं हो लेकिन आम आदमी के लिए इतनी छूट है।
किसे चाहिए हीरोइज्म?
इस देश में हीरो को सांस के अंतिम स्वर और रक्त की अंतिम बूंद बचे रहने तक लड़ते रहना जरूरी है और सिर्फ लड़ते ही नहीं बल्कि जीतना जरूरी है। सदियों से हम अवतारों की अभ्यर्थना करते आए हैं। नायकों का इंतजार करते आए है और उसे अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की बलिवेदी पर कुर्बान करते रहे हैं, सिर्फ इस अहसान के साथ कि हम तुम्हारी तस्वीर टांग देंगे। वे भी पिछले तीन दशक से हमारी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने दौड़ रहे हैं और इस बीच हमनें उनमें चमत्कार भी ढूंढ़ लिए हैं। आमआदमी का प्रतिनिधित्व करने वाला यह व्यक्ति आज भी समाज का हीरो है लेकिन यह सच भी सच है कि उसकी टूटन और अवसाद से समाज बे-परवाह है। बावजूद इसके कि वह साबित कर चुका है कि उसके पेट में भी दर्द हो सकता है। बेटे के मर्जी की शादी की जिद पर कुंडली मिलान के लिए पंडितों और मंदिरों के चक्कर निकालना पड़ता है। बेटे की शादी की मिठाई ठीक उसी तरह वापस लौटाई जा सकती है जैसे आम-आदमी के साथ होता है और वह बहुत ही थके हुए शब्दों में कह सकता है – वे राजा, हम रंक। इतनी साफगोई के बाद भी कोई यह नहीं मानता। उनकी सफेद दाढ़ी समाज को विचलित कर देती है तो यह उनका दोष तो नहीं लेकिन ऐसा माना जाता है और कुछ दिन बाद यह दाढ़ी भी फैशन बन जाती है। ऐसा लगता है कि उन्हें दंगल में उतार दिया गया है और उत्तेजित करने वालों को कोई परवाह नहीं है। कोई नहीं सोचता कि राजेश खन्ना के समय से लेकर शाहरुख खान के समय से लगातार मुकाबला करने वाले इस व्यक्ति के पास कोई पारलौकिक ताकत नहीं है, आम आदमी है। इस भिड़ंत के लिए हमने कहीं उन्हें रेस का घोड़ा तो नहीं बना दिया है जिसे जीतना है बस जीतते रहना। इस रेस के मैदान में कभी ‘बूम’ के लिए दौड़ रहा है तो कभी ‘नि:शब्द’ और ‘चीनी कम’ के लिए। ‘शहंशाह’, ‘अकेला’ ‘जादूगर’ ‘तूफान’ ‘मृत्युदाता’ ‘रामगढ़ के शोले’ जैसे कई मैदान है, जहां दौड़ाया गया है उन्हें। उनके साथ रहने वाले खुमारी में रह सकते हैं। उन्हें चाहने वाले अपनी चाहत पर गर्व कर सकते हैं। उन्हें प्राप्त कर लेने वाले उत्सव मना सकते हैं लेकिन उनका सच इतना सरल नहीं है। हमारे अंदर दबे हुए जोश और हौसले को निकालने के लिए वह प्राणांतक चोट से उबरने के बाद सीधे फार्म हाउस पर जाते हैं और संवाद अदायगी का अभ्यास करते हैं तो क्या इसलिए कि उनकी फैन-लाइन से निकलकर राज ठाकरे नाम का एक व्यक्ति उन्हीं के खिलाफ मोर्चा खोल लेगा?
असली खुशी कौन जाने
इस बार जब उनके जन्मदिन पर मैं बहुत खुश हूं कि मैं उस व्यक्ति को बचपन से चाहता रहा जो आज महानायक है तो शायद यह मेरी खुशी हो सकती है। यह कहते हुए भी गर्व कर सकता हूं कि मेरे पत्रकार बनने के पीछे भी उनकी प्रेरणा है क्योंकि उन्होंने ‘मृत्युदाता’ फिल्म के दौरान अपने इंटरव्यू में कहा था कि ‘अगर भगवान ने अगले जन्म में इंसान के रूप में जन्म दिया तो पत्रकार बनना पसंद करेंगे।’ यह उनके लिए खुशी की बात हो, जरूरी नहीं। क्योंकि उनकी एक सुपर स्टार बनने की खुशी तो उसी समय काफूर हो चुकी थी जब उनके बेटे ने कहा था कि अगर आप मेरी स्कूल के वार्षिकोत्सव में आएंगे तो दूसरे बच्चों के पिता नहीं आएंगे। इसलिए आप स्कूल के वार्षिकोत्सव में नहीं आएं। बेटे को यह इसलिए कहना पड़ता है कि उनकी सुपरस्टारीय सुरक्षा के चलते दूसरे बच्चों के पिता अपमानित महसूस करते हैं। अपने बेटे को स्टेज पर परफॉर्म करते देखने की खुशी से भी वंचित रहने के पीछे एक मात्र अगर कोई वजह रही तो वह उनका सुपरस्टार बनना रहा, ऐसे में वे कहां खुश हैं इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। लोग उनकी खुशी को हर तरह के रोल करने और विज्ञापन करने में ढूंढ़ते हुए व्यंग्य करते हैं कि एक मसाले के विज्ञापन में काम करने की इच्छा जाने कब पूरी होगी लेकिन यह जानने की कोशिश कभी नहीं होती कि वास्तविक खुशी कहां है। आम आदमी के साथ ऐसा ही होता है।
थोपी जाती है प्रशस्तियां
मैंने अपनी जिंदगी में कोई नायक नहीं देखा है। आम आदमी बहुतेरे देखें हैं जो लड़ने की कोशिश जितनी शिद्दत से करते हैं लेकिन विकल्पों के साथ भी सहज रहते हैं। साहित्य में नायकों के गुण बताए गए हैं। हिंदी फिल्मों को देखते हुए नायक की एक तस्वीर बनाने की कोशिश की है लेकिन वे इन परिभाषाओं के अनुकूल नहीं है। उन्हें दुख होता है, तकलीफ होती है। अवसाद में आते हैं, टूट तक जाने की स्थिति तक जाते हैं, लौटते हैं लेकिन हीरो की तरह नहीं। आम आदमी की तरह। एक ऐसा आम आदमी जो अपने पिता की विरासत को संजोए रखने के लिए हर संभव प्रयास करता है क्योंकि वह जानता है पिता के नाम से ही परिवार चलेगा। आत्मकथा लेखन के लिए मिसाल बने अपने पिता की तरह वे भी आत्मकथा लिखना चाहते हों लेकिन उन्हें लगता है उनके पास आत्मकथा लिखने जैसा कुछ है ही नहीं। आत्मकथा खुद द्वारा लिखी गई होती है, प्रशस्तियां दूसरे गाते हैं। प्रशस्तियां थोपी हुई हो सकती है, अतिरेकपूर्ण हो सकती है लेकिन आत्मकथा में खुद के प्रति जवाबदेह होना पड़ता है। आत्म कथा आम-आदमी की बनती है। महिमामंडन अवतारों और नायकों का होता है।
मेरी कामना
मैं चाहता हूं कि उन्हें हीरोइज्म से मुक्ति मिले। इस जन्मदिन पर कामना करता हूं कि उन्हें एक आम-आदमी की पहचान मिले। आम-आदमी का प्रतिनिधि माना जाए और भले ही केंद्र सरकार किसी कार्यक्रम में उन्हें बतौर सेलिब्रिटी नहीं बुलाए, किसी को तकलीफ नहीं होनी चाहिए। मुझे लगता है शायद उन्हें इससे खुशी होगी, निश्चित रूप से मुझे ज्यादा। कब तक आखिर कब तक हम उन पर अपने पूर्वाग्रहों और महत्त्वाकांक्षाओं को लादे रखना चाहेंगे। क्या इस आमआदमी को समझने के लिए अब नाम लेने की जरूरत है?
- हरीश बी. शर्मा