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Thursday, April 28, 2011

तब तक



तूने जब सेंध लगाई
छैनी से भी पहले
आंगन में फैल गई
तेरी रोशनाई
रेत, किरचें और उधर से आती किरण
हां, सूरज तेरा-मेरा अलग नहीं था
किरचें और रेत थी मेरी
मेरी दीवार से
फिर जाने क्यों लगता रहा जैसे
सब कुछ था प्रेरित-अभिप्रेरित
उधर से, तेरी ओर से
छैनी करती रही सूराख
टकराया तेरा होना
तेरे होने का अहसास
अलग था कुछ-अब तक अनदेखा
वजूद जो चाहता था चुरा लेना
मैं निश्चित, आश्वस्त! 
क्या?
था क्या मेरे पास
चुराने लायक?
मैं भी समेट कर घुटने
टेक कर पीठ दीवार से
करने लगा इंतजार
चलती रही हथौड़ी
पिटती रही छैनी
बढऩे लगा आकार
सब कुछ दिखने लगा आरपार
मेरा बहुत कुछ जा चुका था उधर

- हरीश बी. शर्मा

Friday, April 1, 2011

रंगकर्म: बस यूं ही लिखने लगा नाटक

राजस्थान साहित्य अकादमी की ओर से नाट्य विधा के लिए दिए जाने वाले देवीलाल सामर पुरस्कार के लिए मुझे चुने जाने पर मेरे कुछ मित्रों ने मेरे नाटक और सृजन प्रक्रिया के संबंध में जानना चाहा है, उनके प्रश्नों से उपजी यह अनुभूति यहां शेयर कर रहा हूं। 
बीकानेर में उन दिनों नाटकों की जबर्दस्त मार्केटिंग होती थी। फिल्मों के पोस्टर की तरह पोस्टर लगते थे। बस, ये पोस्टर हाथ से बने होते थे। आकर्षण पैदा हुआ। नाटक में रोल पाना चाहता था लेकिन 'थैंक यू मिस्टर ग्लाडÓ में मधु आचार्य जी की धुआंधार रिहर्सल ने अंदर तक हिला रखा था। फिर भी स्कूल-कॉलेज तक छिटपुट नाटक करता रहा। स्वदेश दीपक के 'कोर्टमार्शलÓ के जरिये पहली बार स्टेज का स्पर्श किया। यह समय था जब जवाहर कला केंद्र ने संभागीय नाट्य प्रतियोगिता शुरू हुई। यह बात 1995 के आसपास की है। इस प्रतियोगिता के दौरान स्क्रिप्ट की समस्या एक मुद्दा बन गई। वरिष्ठ रंगकर्मी प्रदीप भटनागर, जगदीशसिंह राठौड़, रामचंद्र शर्मा 'अनिशाÓ ने कहा कि तुम स्क्रिप्ट क्यों नहीं लिखते। इसी बीच आकाशवाणी के जोधपुर में होने वाले यूथ फेस्टीवल के लिए योगेश्वर नारायण शर्मा ने 'वाह रे देश के कर्णधारÓ स्क्रिप्ट हम से लिखवा ली। यहां हम से आशय मैं और डॉ.कुमार गणेश हैं। इसे हमने लिखा भी और अभिनय भी किया। हां, आकाशवाणी का यह कार्यक्रम ही ऐसा था कि नाटकों का मंचन हुआ और लाइव-प्रसारण भी।
इस के बाद तो जैसे सिलसिला शुरू हो ही गया। नाटक लिखे तो पुरस्कृत हुए। मंचन भी हुआ। इसी दौरान राजस्थान साहित्य अकादमी ने हिंदी नाट्य सृजन तीर्थ किया। यहां भी नाटक का चयन हुआ। मंचन होते रहे और इस तरह हम पूरी तरह से नाटक के हो गए। हमें रंग-लेखक बनाने में जवाहर कला केंद्र की लघु नाट्य लेखन प्रतियोगिता का बहुत बड़ा योगदान रहा। आज इस बात का संतोष है कि 15 साल पहले जहां स्क्रिप्ट की कमी की बात होती थी, वह काफी हद तक कम हो गई है।
मेरा सौभाग्य है कि लक्ष्मीनारायण सोनी, सुरेश हिंदुस्तानी, सुधेश व्यास, दलीपसिंह भाटी, दिनेश प्रधान, विपिन पुरोहित, अभिषेक गोस्वामी, रामसहाय हर्ष, रामचंद्र शर्मा, सुकांत किराड़ू, मयंक सोनी, सुरेश पाईवाल, मनजीत मन्ना ने मेरे लिखे नाटकों का निर्देशन किया। इस तरह 'सलीबों पर लटके सुखÓ, 'पनडुब्बीÓ, 'भोज बावळौ मीरां बोलैÓ, 'देवताÓ, 'कठफोड़ाÓ, 'एक्सचेंजÓ, 'हरारतÓ, 'जगलरीÓ, 'एलओसी:लाइन ऑफ कंट्रोलÓ, 'प्रारंभकÓ, 'सराबÓ, 'गोपीचंद की नावÓ 'ऐसो चतुर सुजानÓ नाटकों का मंचन हुआ। 'हरारतÓ और 'पनडुब्बीÓ के दो मंचन हो चुके और 'सराबÓ को सिंधी में अनुदित करके मंचित किया गया।
इसके अतिरिक्त 'अथवा कथाÓ , 'आंगन भयो बिदेसÓ और हाल ही में लिखा गया नाटक 'ऑनर किलिंग:अस्मिता मेरी भीÓ मंच का परस पाना चाहते हैं। हां, मेरा यह साफ तौर पर मानना है कि मंच का परस मिले बगैर कोई भी आलेख नाटक नहीं हो सकता। मेरे लिए नाटककार होने की एकमात्र यही कसौटी है, यह पहली और आखिरी शर्त।
- हरीश बी. शर्मा