tag:blogger.com,1999:blog-83826598819785142052024-03-06T10:05:10.820+05:30मरुगंधामरुगंधा के मार्फ़त आप का सामना करने कि कोशिश नए सिरे से है. हालाँकि अंतरजाल की दुनिया में अरसा होने आया है. ब्लॉग www.harishbsharma.com के जरिये संपर्क में हूँ लेकिन शिकायत यह रही की साहित्यिक रचनाएँ नहीं मिल रही. मरुगंधा के माध्यम से अपनी रचनाएँ, रचना प्रक्रिया, विरासत में मिले और समकालीन सृजन पर अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करने के प्रयास में हूँ. वस्तुत: यह सारी कवायद मेरी सक्रियता का पैमाना होगी जो आप की प्रतिक्रियाओं से परिभाषित होंगी...नमस्कार !Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.comBlogger59125tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-86707768428724638742011-10-16T23:33:00.000+05:302011-10-16T23:33:18.282+05:30मुझे लौटना है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">मुझे लौटना है<br />
बिल्कुल<br />
तय है लौटना<br />
लेकिन <br />
तुम्हारे पास नहीं<br />
हां, तुम्हारे पास भी नहीं<br />
बिल्कुल नहीं क्योंकि तुम नाम हो<br />
अब मुझे नहीं चाहिए कोई भी नाम<br />
पहचान<br />
जगह<br />
संज्ञा<br />
नहीं चाहिए सर्वनाम<br />
कोई विशेषण<br />
...<br />
यहां तक लौटने की चाहत <br />
खत्म हो रही है मेरी<br />
या के घुटन होने लगी है यहां<br />
या के अब और पाना चाहता हूं<br />
है...! कोई है?<br />
दे सकते हो तुम?<br />
तुम...?<br />
हां, बोलो तुम भी...?<br />
कोई भी... जो सक्षम हो! <br />
बोलो-बोलो-कोई तो हो<br />
देह न अदेह<br />
प्राण से परे<br />
जीवात्मा न परमात्मा<br />
सब भटक रहे हो-मुक्ति के लिए<br />
तुम लोगों से-मुझे क्या मिलेगा बोलो<br />
बोलो-मुझे क्या दोगे? <br />
अब तक मेरी और तेरी चाहतों में<br />
फर्क ही क्या रहा जो<br />
सुकून की आस करुं तुझसे?<br />
या के तुम मुझसे राहत पाओ!<br />
छोड़ो भी सब, छोड़ो भी अब<br />
तुम अपनी जानो-जाना है तो जाओ<br />
वरना लौट जाओ<br />
मुझे जाना है<br />
लौटना है, लौटना है, लौटना है<br />
बस! याद रखना मेरे पीछे आने से भी कुछ ना मिलेगा<br />
आज तक अनुयायियों को संप्रदाय ही चलाने पड़े हैं<br />
सब कुछ जानते अपने देवताओं के झूठ-सच<br />
निभाने पड़े हैं-मंत्र<br />
होमनी पड़ी है आस्थाएं<br />
तुम ऐसा मत करना<br />
मेरे कहे का संप्रदाय मत बनाना<br />
मेरे से आस्था मत जोडऩा<br />
जो खुद को ही नहीं ढूंढ़ पाया <br />
बहुत पहले ही हो चुका है तुम्हारे सामने नंगा<br />
सनद रहे-यह नग्नता साधना नहीं है<br />
तुम भ्रम में मत पडऩा<br />
मैं जानता हूं तुम भ्रम में नहीं, कौतुहल में हो<br />
जानना चाहते हो<br />
मैं <br />
ऐसा हूं या वैसा<br />
मिलेगा जवाब<br />
मैं आऊंगा-बताने<br />
इसीलिए लौटना है मुझे<br />
मांगना है जवाब<br />
दिग से, दिगंत से<br />
मेरे होने के कारक बने उन सभी से<br />
जो कर रहे हैं मेरा इंतजार<br />
मैं जानता हूं <br />
वे बेहद खुश होंगे<br />
वे बुला रहे हैं<br />
तुम इसे मेरी तरह लौटना ही कहना<br />
वे भी इसे लौटना ही समझें तो बेहतर<br />
सुना है <br />
लौटने का कहकर निकले बहुतेरे<br />
आज तक उन तक पहुंचे नहीं हैं<br />
मुझे लौटना है<br />
मुझे लौटना है<br />
मुझे लौटना है<br />
<br />
- हरीश बी. शर्मा<br />
<br />
</div>Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-54112915601726713812011-05-18T14:15:00.002+05:302011-05-18T14:15:57.214+05:30कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">वह लगे सुहानी बरखा सी<br />
सूखे मरु को है सरसाती<br />
कभी संवेदन, कभी स्पंदन<br />
कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी<br />
<br />
वो प्रणय कवि की ज्यों पंक्ति<br />
वह कशिश गजल का मतला ज्यूं<br />
वह छुअन बहारों की समीरा<br />
वह लाज उदित होते रवि की<br />
वह छन-छन पायल की भाषा<br />
वह हंसी कहीं बिजली चमकी<br />
कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी<br />
<br />
वह घनश्यामल बिखरी जुल्फें<br />
वह दीपशिखा मद्धिम-मद्धिम<br />
वह बंदनवार बहारों की<br />
वह चरम बसंती पुरवाई<br />
वह लय है गीतों की मेरे<br />
वह वीणा मेरी वाणी की<br />
कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी<br />
<br />
वह दिल में बसी प्यारी मूरत<br />
वह जिसे सजाया ख्वाबों में<br />
वह झील-सी गहराई जिसमें<br />
हम डूबते ही हर बार चले<br />
वह खिलता कमल, सिमटी दुल्हन<br />
वह तुलसी मेरे अंगना की<br />
कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी<br />
<br />
- हरीश बी. शर्मा </div>Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-32944171654598791162011-04-28T02:10:00.000+05:302011-04-28T02:10:00.632+05:30तब तक<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<br />
तूने जब सेंध लगाई <br />
छैनी से भी पहले <br />
आंगन में फैल गई <br />
तेरी रोशनाई<br />
रेत, किरचें और उधर से आती किरण<br />
हां, सूरज तेरा-मेरा अलग नहीं था<br />
किरचें और रेत थी मेरी<br />
मेरी दीवार से<br />
फिर जाने क्यों लगता रहा जैसे<br />
सब कुछ था प्रेरित-अभिप्रेरित<br />
उधर से, तेरी ओर से<br />
छैनी करती रही सूराख<br />
टकराया तेरा होना<br />
तेरे होने का अहसास<br />
अलग था कुछ-अब तक अनदेखा<br />
वजूद जो चाहता था चुरा लेना<br />
मैं निश्चित, आश्वस्त! <br />
क्या?<br />
था क्या मेरे पास<br />
चुराने लायक?<br />
मैं भी समेट कर घुटने<br />
टेक कर पीठ दीवार से<br />
करने लगा इंतजार<br />
चलती रही हथौड़ी<br />
पिटती रही छैनी<br />
बढऩे लगा आकार<br />
सब कुछ दिखने लगा आरपार<br />
मेरा बहुत कुछ जा चुका था उधर<br />
<br />
- हरीश बी. शर्मा <br />
</div>Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-60926339937314327842011-04-01T00:11:00.000+05:302011-04-01T00:11:18.943+05:30रंगकर्म: बस यूं ही लिखने लगा नाटक<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">राजस्थान साहित्य अकादमी की ओर से नाट्य विधा के लिए दिए जाने वाले देवीलाल सामर पुरस्कार के लिए मुझे चुने जाने पर मेरे कुछ मित्रों ने मेरे नाटक और सृजन प्रक्रिया के संबंध में जानना चाहा है, उनके प्रश्नों से उपजी यह अनुभूति यहां शेयर कर रहा हूं। <br />
बीकानेर में उन दिनों नाटकों की जबर्दस्त मार्केटिंग होती थी। फिल्मों के पोस्टर की तरह पोस्टर लगते थे। बस, ये पोस्टर हाथ से बने होते थे। आकर्षण पैदा हुआ। नाटक में रोल पाना चाहता था लेकिन 'थैंक यू मिस्टर ग्लाडÓ में मधु आचार्य जी की धुआंधार रिहर्सल ने अंदर तक हिला रखा था। फिर भी स्कूल-कॉलेज तक छिटपुट नाटक करता रहा। स्वदेश दीपक के 'कोर्टमार्शलÓ के जरिये पहली बार स्टेज का स्पर्श किया। यह समय था जब जवाहर कला केंद्र ने संभागीय नाट्य प्रतियोगिता शुरू हुई। यह बात 1995 के आसपास की है। इस प्रतियोगिता के दौरान स्क्रिप्ट की समस्या एक मुद्दा बन गई। वरिष्ठ रंगकर्मी प्रदीप भटनागर, जगदीशसिंह राठौड़, रामचंद्र शर्मा 'अनिशाÓ ने कहा कि तुम स्क्रिप्ट क्यों नहीं लिखते। इसी बीच आकाशवाणी के जोधपुर में होने वाले यूथ फेस्टीवल के लिए योगेश्वर नारायण शर्मा ने 'वाह रे देश के कर्णधारÓ स्क्रिप्ट हम से लिखवा ली। यहां हम से आशय मैं और डॉ.कुमार गणेश हैं। इसे हमने लिखा भी और अभिनय भी किया। हां, आकाशवाणी का यह कार्यक्रम ही ऐसा था कि नाटकों का मंचन हुआ और लाइव-प्रसारण भी।<br />
इस के बाद तो जैसे सिलसिला शुरू हो ही गया। नाटक लिखे तो पुरस्कृत हुए। मंचन भी हुआ। इसी दौरान राजस्थान साहित्य अकादमी ने हिंदी नाट्य सृजन तीर्थ किया। यहां भी नाटक का चयन हुआ। मंचन होते रहे और इस तरह हम पूरी तरह से नाटक के हो गए। हमें रंग-लेखक बनाने में जवाहर कला केंद्र की लघु नाट्य लेखन प्रतियोगिता का बहुत बड़ा योगदान रहा। आज इस बात का संतोष है कि 15 साल पहले जहां स्क्रिप्ट की कमी की बात होती थी, वह काफी हद तक कम हो गई है। <br />
मेरा सौभाग्य है कि लक्ष्मीनारायण सोनी, सुरेश हिंदुस्तानी, सुधेश व्यास, दलीपसिंह भाटी, दिनेश प्रधान, विपिन पुरोहित, अभिषेक गोस्वामी, रामसहाय हर्ष, रामचंद्र शर्मा, सुकांत किराड़ू, मयंक सोनी, सुरेश पाईवाल, मनजीत मन्ना ने मेरे लिखे नाटकों का निर्देशन किया। इस तरह 'सलीबों पर लटके सुखÓ, 'पनडुब्बीÓ, 'भोज बावळौ मीरां बोलैÓ, 'देवताÓ, 'कठफोड़ाÓ, 'एक्सचेंजÓ, 'हरारतÓ, 'जगलरीÓ, 'एलओसी:लाइन ऑफ कंट्रोलÓ, 'प्रारंभकÓ, 'सराबÓ, 'गोपीचंद की नावÓ 'ऐसो चतुर सुजानÓ नाटकों का मंचन हुआ। 'हरारतÓ और 'पनडुब्बीÓ के दो मंचन हो चुके और 'सराबÓ को सिंधी में अनुदित करके मंचित किया गया। <br />
इसके अतिरिक्त 'अथवा कथाÓ , 'आंगन भयो बिदेसÓ और हाल ही में लिखा गया नाटक 'ऑनर किलिंग:अस्मिता मेरी भीÓ मंच का परस पाना चाहते हैं। हां, मेरा यह साफ तौर पर मानना है कि मंच का परस मिले बगैर कोई भी आलेख नाटक नहीं हो सकता। मेरे लिए नाटककार होने की एकमात्र यही कसौटी है, यह पहली और आखिरी शर्त। <br />
- हरीश बी. शर्मा <br />
</div>Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-60497198604054004202011-03-07T01:35:00.000+05:302011-03-07T01:35:07.800+05:30इक नई तुकबंदी! मुलाहिजा फरमाइये...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">कितनी होशियारी<br />
कि सबकुछ बचाकर भी<br />
कह जाते हैं लोग<br />
समझाते हैं-यही है दुनियादारी<br />
काश! हमें भी आ जाए ये अय्यारी<br />
कहे तो कहे दिल इसे मक्कारी </div>Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-87607652981364244312011-01-23T00:41:00.003+05:302011-01-23T13:18:30.535+05:30उनके चितराम, मेरी भरी-भरी आंखें<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_0KyckYUhVIXZPDlIsgww9JQEc0CAzIBfMvUOX9N0BBKGn-bt5PtYVsujEjPi9YiLJK3D5jgZu7-uRKqqlDsJPnCh-AF8VUV_aal63ZZwtXY5tDuqFslbQ2Imtwr1slDNcAJgCn5dWBdm/s1600/Om.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_0KyckYUhVIXZPDlIsgww9JQEc0CAzIBfMvUOX9N0BBKGn-bt5PtYVsujEjPi9YiLJK3D5jgZu7-uRKqqlDsJPnCh-AF8VUV_aal63ZZwtXY5tDuqFslbQ2Imtwr1slDNcAJgCn5dWBdm/s1600/Om.jpg" /></a></td></tr>
<tr style="font-family: Verdana,sans-serif;"><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Om Purohit Kagad</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">'आंख भर चितराम' यह नाम है राजस्थानी के वरिष्ठ साहित्यकार ओम पुरोहित 'कागद' के कविता संग्रह का। हालांकि कविता से होकर निकलना आसान नहीं है लेकिन अगर कवि 'कागद' हों तो यह हो सकता है। उनकी कविताएं बहुत ही जाने-पहचाने प्रतीक और बिंबों के साथ अपनी बात कहते हुए आगे बढ़ती है लेकिन अचानक ये सारे कुछ और जताने लगते हैं। ओमजी के हाथ में पहुंचने के बाद ये उनके इशारों पर चलने लगते हैं। मुझे नहीं लगता कि किसी ने कालीबंगा सभ्यता के बारे में नहीं पढ़ा हो लेकिन इस संग्रह का एक अध्याय जो पूरी तरह से कालीबंगा पर आधारित है, से निकलने के बाद ही यह तय होता है कि हमने क्या, कितना और कैसे पढ़ा। कोफ्त होती है कि अगर वह इतना अधकचरा था तो क्यों और किसलिए पढ़ा। </div><div style="text-align: justify;">इतने सारे विजुअल जो उन्होंने रचे हैं, एक बार पढऩे पर लगता है कि सारे समझ में आ गए हैं लेकिन अगले ही क्षण लगता है कि ओमजी जिस 'अड़वे' की बात कर रहे हैं वो खेत में खड़ा लकड़ी की पिंजर भर नहीं है। उनकी 'खेजड़ी' एक सांस्कृतिक आख्यान लगती है। उनके 'झूठ' सच का अभिप्राय है। 'कालीबंगा' के बहाने तो जैसे उन्होंने मानवीय सभ्यता के सारे मापदंड ही रख दिए हैं। </div><div style="text-align: justify;">उनकी कालीबंगा एक ऐसी सृष्टि है, एक ऐसा पड़ाव है जिसे सभ्यता के तौर पर हम जानते-समझते आए हैं। सभ्यता के इस मर्म को ओमजी ने गहरे तक पकड़ा है और फिर आज की हमारी सभ्यता से जोड़कर जो उन्होंने व्यंजना की है, लाजवाब है। हमें 'हम' होने के लिए झकझोरती है। तर्क और संवेदना के साथ वे इतने कपाट खोल देते हैं कि सवाल नत-मस्तक हो जाते हैं। </div><div style="text-align: justify;">ऐसे में यह तय है कि पढऩे भर से इन कविताओं तक पहुंचना संभव नहीं है। इसे जानने के लिए राजस्थान में उतरना होगी। धोरों पर दौडऩा होगा और मायड़ भाषा से दीक्षित होना होगा। इस सार्थक लेखन को कोटिश: नमन। मैं चाहता हूं बार-बार पढ़ूं इसे। देखता रहूं आंख भर चितराम। कभी तो समझ आएगा जो ओमजी कहना चाहते हैं। </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><b>- हरीश बी. शर्मा </b></div></div>Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-28250706219490537302011-01-01T01:20:00.000+05:302011-01-01T01:20:29.033+05:30कुछ लोगों पर तो नींद में ही लागू हो गया नववर्षकुछ भी तो खास नहीं रहा। कोहरा उतरा और ना शीत लहर कम हुई। पतझड़ भी दूर खड़ा अपनी बारी का इंतजार करता रहा। उसे भी लगा कि इतना तो मैं भी बेशर्म नहीं किफसलें पके नहीं और मैं आ धमकूं। लेकिन नया साल आ ही गया। एकदम दबे पांव। कुछ लोगों पर तो नींद में ही लागू हो गया। ठीक वैसे ही जैसे अंग्रेज आए थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के मार्फत। कितनी समानता है ना दोनों में। अब आए तो निभाएंगे। अतिथि देवो: परंपरा में अगाध श्रद्धा रखते हैं। तब भी किया था स्वागत, आज भी बंदनवार सजाएंगे। आओ नववर्ष, हमारे उत्कर्ष के कारण बनो...Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-34643203930928504102010-12-29T20:28:00.002+05:302010-12-29T20:28:24.163+05:30गाय मरे तो हरिद्वार...ख्यालीराम सुबह उठा तो उसे गाय मरी हुई मिली। पत्नी के दुख का पारावार नहीं था। वजह, रात को उसी ने गाय को खूंटे से बांधा था। पता नहीं कैसे, क्या हुआ और गाय की मौत हो गई। ख्यालीराम की पत्नी ने इस मौत को अपने सिर लिया और दोपहर बाद अपने पति के साथ बीकानेर स्टेशन से कालका एक्सप्रेस में हरिद्वार के लिए रवाना हो गई। यह कहानी नहीं। हकीकत है। इस तरह वह प्रायश्चित करना चाह रही थी। गांवों में आज भी ऐसा होता है-अगर बंधी हुई गाय की मौत हो जाए तो गाय बांधने वाले को हरिद्वार स्नान करने जाना पड़ता है। मुझे याद आया कि कुछ साल पहले तक मरती हुई गाय को गीता सुनाई जाती थी। उसकी मुक्ति का यह जतन ठीक वैसा ही तो था जैसा किसी इंसान के लिए किया जाता है। हालांकि लूणकरसर के गांव अजीतमाना के ख्यालीराम के लिए यह धर्म से जुड़ा प्रश्न था। ख्यालीराम का कहना था कि मेघासर में उसका खेत है, ट्यूबवेल है-गाय भी वहीं थीं। गाय से बड़ा क्या धर्म? <br />
इस घटना ने मुझे एक बार फिर धर्म को नए सिरे से समझने के लिए मजबूर कर दिया। क्या ख्याली के इस धर्म को सिर्फ हिंदू धर्म से जोड़कर समझा जा सकता है। हालांकि ख्याली के लिए समझ का यही तरीका था। उसने साधारणीकरण कर लिया था लेकिन उसका भाव क्या वास्तव में इतना साधारण है कि एक बार में समझ में आ जाए और दूसरी बार में स्वीकार कर लिया जाए। <br />
मुझे बार-बार यही लग रहा था कि एक तरफ वह धर्म है जिसके नाम पर राजनीति हो रही है। दूसरी तरफ यह धर्म है जिससे बंधा व्यक्ति हाड कंपाने वाली ठंड में भी अपना घर-बार, खेती-बाड़ी छोड़कर हरिद्वार जाने की प्राथमिकता रखता है। धर्म के नाम पर पेशानी पर बल डालने वाले, नाक-भौं सिकोडऩे वाले लोग ख्याली के धर्म को कौनसा धर्म कहेंगे? यह तो तय है कि ख्याली वाले धर्म का मार्ग बहुत ही परेशानी भरा है। इसे अपनाने पर ही आपत्तियां हो सकती हैं। गाय पालने, दूध निकालने का कारोबार करने वालों के लिए इन सभी बातों के क्या मायने। फिर क्रीम निकालने वालों के लिए तो यह औचित्यहीन है। <br />
मुझे बार-बार लग रहा था कि जो लोग कहते हैं कि धर्म की जड़ें बहुत गहरी हैं, उनका इशारा भगवाधारियों की ओर नहीं ख्यालीराम और उसकी पत्नी जैसे गृहस्थों की ओर रहा होगा जिनके लिए देवताओं की आरती, पूजा, सत्संग या के राजनीति की बजाय धर्म कुछ और है। यह कुछ और, कुछ और नहीं बल्कि सद्भाव है, अगर कोई हमारे हित की रक्षा करता है तो हम भी उसके प्रति हितैषी रहें। गाय के मरते ही नगर निगम के ट्रैक्टर के लिए फोन मिलाने से पहले एक बार उसके दिए दूध के प्रति तो आभार जताते हुए श्रद्धासुमन अर्पित कर ही दें। अगर नहीं कर सकें तो एक बार यह सोचें कि गाय जो दूध देती है-वह हम सभी के जीवन के लिए कितना अपरिहार्य बनता जा रहा है। भले ही आपको गोबर, गोमूत्र की महत्ता नहीं पता हो, दूध के बारे में तो जानते ही हों।Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-38056260168156794612010-11-12T13:00:00.002+05:302010-11-12T13:00:22.232+05:30बयानों का च्युइंगम...हमें लड़ाइयां काफी पसंद है। जल, थल और अग्नि को आजमाने के बाद जब लड़ाई की संभावनाएं खत्म हो गई तो अणु-परमाणु पर हाथ आजमाया और अब जैविक-रासायनिक से आशंकित हैं। इस बीच किसी ने संपूकला फेंका कि अगला युद्ध पानी के लिए होगा, यह भी मान लिया लेकिन लड़ाइयों की असली वजह पर भी तलाशी जानी चाहिए। शब्द। प्रतिक्रियाएं। उफान। देखिये ना, ये राजनेता किस तरह हमें लड़ा रहे हैं। फेंकते हैं बयानों के ब्रह्मास्त्र और फिर घर जाकर चैन से सो जाते हैं। पहले यह काम दूसरी-तीसरी पंक्ति के नेता किया करते थे, अब ऐसे कार्यों के लिए दूसरों पर भरोसा नहीं किया जाता। क्रेडिट जाता है। मीडिया है। फेसबुक जैसी सोशियल नेटवर्किंग है। विचारों की हमारे पास ना कभी कमी रही, ना रहेगी।<br />
<br />
हम क्यों नहीं मानते जबकि जानते हैं कि इस तरह के बयान सिर्फ भड़काने के लिए होते हैं। बस, बह जाते हैं। पक्ष-विपक्ष में खड़े हो जाते हैं। पाले बांध लेते हैं। इस में भी हित किसका निहित है। इस तरह के सुनियोजित बयानों के फेर में पडऩे की बजाय एक बार खुद को आजमाएं। इस देश में बयानों की राजनीति ही चलानी है तो बयान पर एक और बयान दे दें। बहस जारी रहेगी। बहस जारी रहेगी तो ऐसा कहा जाता है कि लोकतंत्र मजबूत रहेगा। कितनी अच्छी बात है कि हमारे राजनेता बहस जारी रखने के लिए कितना बड़ा योगदान दे रहे हैं। वक्त-जरूरत एक बयान उछाल देते हैं, मजबूत होता रहता है लोकतंत्र। <br />
<br />
तो लोकतंत्र की मजबूती के लिए शब्दों की लड़ाई जारी रहे। अगला विश्वयुद्ध कब होगा, होगा भी या नहीं। इन सभी आशंकाओं पर भी बहस कर लेंगे लेकिन मुझे लगता है कि विश्वयुद्ध शुरू हो चुका है। शब्दों से सत्कार का, शब्दों से प्रतिकार का, शब्दों से संहार का। खुश होने के लिए खुश हों भले ही लेकिन यह दुखद भी तो है कि एक ऐसा वर्ग है जो यह मान चुका है कि जो बोलते हैं, उन्हें बोलने दो और अगर बोलने के लिए विषय खत्म हो जाएं तो एक-दो बयान और उछाल दो। बयानों पर जुगाली करते रहेंगे, च्युइंगम बनाते रहेंगे। देश को चलाने वाले चलाते रहेंगे। <br />
<br />
हरीश बी. शर्माHariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-66320744871407639012010-11-04T12:30:00.002+05:302010-11-04T12:30:12.053+05:30ये जग, जगमगाएविश्वास का ले दीपक<br />
<br />
<br />
द्रव्य आस्था का भरकर<br />
<br />
बाती मेरे दीये की<br />
<br />
उल्लास से नहाए<br />
<br />
उजास के आंचल में<br />
<br />
सारे ही सिमट जाए<br />
<br />
ना अब कभी अंधेरा राहों में<br />
<br />
तेरी आए<br />
<br />
तेरी ही रोशनी में ये जग, जगमगाए <br />
<br />
- हरीश बी. शर्माHariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-21375033602044844152010-11-04T12:26:00.002+05:302010-11-04T12:26:35.067+05:30हर दिन दीवाली आपकोउजास के प्रयास को<br />
<br />
<br />
दीपों के साहस को<br />
<br />
अंधेरे को चीर दे<br />
<br />
ऐसी आस्था-विश्वास को<br />
<br />
नमन है<br />
<br />
अभिवादन है<br />
<br />
इस पर्व को, प्रकाश को<br />
<br />
आप रहें सदा आलोकित<br />
<br />
हर दिन दीवाली आपको<br />
<br />
-हरीश बी. शर्माHariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-85006513621428477332010-10-15T17:57:00.000+05:302010-10-15T17:57:55.329+05:30जो रावण को मारे, वो रिश्वत ना स्वीकारेदशहरा आने को है। रावण को दहन करने के साक्षी हम बनेंगे। कोई पॉलीटिशियन, कोई ब्यूरोक्रेट्स तीर चलाएगा, राम कहलाएगा और रावण को मार गिराएगा। गूंजेगा चारों ओर जयश्री राम। उन्हें एक दिन का रामत्व मुबारक। बधाई! तो क्या हम मानें कि इस एक दिन जो भी रावण को मारने के लिए आगे आएगा वो रिश्वत की कमाई नहीं खाएगा, भ्रष्टाचार नहीं करेगा, काम की पेंडेंसी नहीं बढ़ाएगा। इतना तो कर ही लो मेरे देश के भाग्यविधाताओं। राम बनने का मौका बिरलों को मिलता है, आपको मिला है तो ऐसे ना गंवाओ। <br />
चलो, जन्मजन्मांतर का संकल्प मत लो। जब तक वर्तमान पद पर हो तब तक का ही सही। अच्छा-अच्छा! ज्यादा लंबा हो जाएगा? छह महीने तो ज्यादा नहीं? यह भी ज्यादा है? ... तो एक महीने, एक पखवाड़ा, एक सप्ताह? अच्छा... यह भी ज्यादा है? तो आप ही बताएं। ...बताना क्या? उस दिन जिस दिन आप राम बनाएंगे। हम पूर्ण शाकाहारी रहेंगे। सच्चे लोकसेवक। ही...ही...ही...उस दिन सन-डे भी है ना... Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-21849091376305161682010-10-11T12:31:00.000+05:302010-10-11T12:31:12.815+05:30साक्षात्कार अमिताभ का, चुनौती खुद से<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgaQ6kxNSKPeoHeKNkHM0c-rqm9k2ZSl91n6DaMVqRTHkh_7euLg_HFNrFJJDtWON-XZEyuj9QwxP5oVUm-PAioT9ypd9Nq7dIC8VK4bdPKg8J9SiITEWLOu5PTZ7J47rcxsEsC5-Mx3PQ4/s1600/Big-B-with-HB1.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; cssfloat: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" ex="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgaQ6kxNSKPeoHeKNkHM0c-rqm9k2ZSl91n6DaMVqRTHkh_7euLg_HFNrFJJDtWON-XZEyuj9QwxP5oVUm-PAioT9ypd9Nq7dIC8VK4bdPKg8J9SiITEWLOu5PTZ7J47rcxsEsC5-Mx3PQ4/s1600/Big-B-with-HB1.jpg" /></a></div>वास्तव में उन पलों को बयान नहीं किया जा सकता। जब मैंने अमिताभ बच्चन का साक्षात्कार किया। भास्कर के लिए रिपोर्टिंग करते हुए ऐसे पल कई बार आए। संतोषानंद और निदा फाजली से लेकर टॉम ऑल्टर सरीखी विभूतियों से मिलना हुआ तो गोविंदाचार्य से लेकर धर्मेन्द्र, राज बब्बर जैसे लोगों की दिनचर्या को भी करीब से देखा। ऐसे मौके कई बार आए जब मेरे सामने देश की अनमोल रत्न थे। साहित्य-संस्कृति से लेकर समाज और राजनीति की धारा को प्रवाहमान रखने वाले इन लोगों से मिलने के लिए किए जाने वाले प्रयास और फिर मिलने के बाद उनकी रिपोर्टिंग करने की चुनौती। आज यह सब किस्से-कहानी बन गए हैं। लेकिन आज भी पांच साल पुराना वह वाकया ताजा है तब अमिताभ बच्चन से मिलना हुआ था। बीकानेर के पास दरबारी नाम की लोकेशन पर फिल्म एकलव्य की शूटिंग के लिए उनका आना ही बीकानेर की प्रेस के लिए एक चुनौती था। कैसे उनसे बात होगी? यह सवाल यक्ष प्रश्न था। भास्कर लगातार शूटिंग रिपोर्ट छाप रहा था। विधु विनोद चौपड़ा, प्रदीप सरकार जैसे लोगों की रिपोर्ट भी फीकी थी क्योंकि पाठक अमिताभ बच्चन का इंटरव्यू चाहते थे। 13 अक्टूबर 2005 को सुबह-सुबह मैं, हमारे फोटो जर्नलिस्ट श्रीराम रामावत और पीटीआई के फोटोजर्नलिस्ट दिनेश गुप्ता दरबारी पहुंंचे। पता चला अमिताभ ने एक सीन कर भी लिया है और अब अपनी वेनिटी वैन में हैं। अमिताभ की वेनिटी वैन के दरवाजे के नीचेे साक्षात्कार की मंशा जताते हुए स्लिप और कार्ड खिसकाया। 15 मिनट में समय मिल गया कि शाम को अमिताभ मुखातिब होंगे। इस शाम का इंतजार हमारे लिए युगों जितना लंबा था। मुझे सुबह से ही लगने लगा था कि यह समय सामान्य नहीं होगा। इस असामान्य समय से सामना करने के लिए मेरे पास सवाल के अलावा कोई हथियार भी नहीं थे। <br />
शाम तक सारे शहर की प्रेस को यह पता चल गया था कि अमिताभ प्रेस से बात करेंगे। शाम को सूर्यास्त के दृश्य के बाद जब अमिताभ फ्री हुए तो दरबारी में लॉ-एंड-ऑर्डर की स्थिति बिगडऩे की आशंका हो गई। अमिताभ ने कहा, गजनेर पैलेस चलते हैं। वहां बात हुई। तकरीबन 16 मिनट चली लेकिन लगा जैसे वक्त ठहर गया। अमिताभ बीकानेर की प्रेस के सवालों का जवाब धैर्य से देते रहे। कभी-कभी तल्ख भी हुए तो व्यंग्य भी किया। मेरे पास पूरा मौका था कि उन्हें बहुत करीब से महसूस कर सकूं। मेरे सामने वह अमिताभ थे, जिनसे मैं गहरे तक जुड़ा था। उनसे सवाल करने का मौका था। बाबूजी के लोकगीतों पर काम करने से लेकर मैथड़ एक्टिंग, राजनीति, कजरारे जैसे गाने पर ठुमके लगाने सहित खुद की आत्मकथा लिखने जैसे कई सवाल मैंने पूछे। यकीनन, अविस्मरणीय थे वे क्षण। इंटरव्यू के बाद वाले क्षण तो और भी अद्भुत तब मैं अमिताभ को यह बता सका कि उनकी वजह से ही मैं पत्रकारिता कर रहा हूं। हां, यह सच है कि अमिताभ ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि इस जन्म में तो जितना करना था वह हो गया लेकिन अगला जन्म इंसान के रूप में मिला तो मैं पत्रकार बनना चाहूंगा। अमिताभ को यह बताया तो उन्हें अच्छा लगा। लगभग पौन घंटे में हम गजनेर पैलेस से बाहर थे लेकिन यह समय एक अध्याय बनकर मेरे जीवन में शामिल हो गया। <br />
हरीश बी. शर्मा Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-26501491980742611952010-10-10T19:07:00.000+05:302010-10-10T19:07:46.361+05:30सफल आमआदमी, असफल नायक<strong> <h1 class="title"><a href="http://harishbsharma.com/blog/2009/10/%e0%a4%b8%e0%a4%ab%e0%a4%b2-%e0%a4%86%e0%a4%ae%e0%a4%86%e0%a4%a6%e0%a4%ae%e0%a5%80-%e0%a4%85%e0%a4%b8%e0%a4%ab%e0%a4%b2-%e0%a4%a8%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%95/" rel="bookmark" title="Permanent Link: सफल आमआदमी, असफल नायक"></a> </h1><div class="entry"><a href="http://harishbsharma.com/blog/wp-content/uploads/2009/10/Big-B-with-HB1.jpg" style="clear: left; cssfloat: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Big-B-with-HB" class="alignleft size-full wp-image-37" height="203" src="http://harishbsharma.com/blog/wp-content/uploads/2009/10/Big-B-with-HB1.jpg" title="Big-B-with-HB" width="250" /></a>वे एक सफलतम आम आदमी हैं लेकिन एक असफल नायक हैं जिसे हर बार सहारे के लिए ऐसे लोगों को साथ रखना पड़ता है जो वस्तुत: उनके ताप से अपनी रोटी सेंकना चाहते हैं बल्कि सेक भी लेते हैं। आलोचक उन्हें जितना महत्त्वाकांक्षी और अवसरवादी बताते हैं, उनका लाभ लेने की योजना बनाने वाला उनसे भी अधिक होशियार और हुननमंद हैं। लोग उन्हें इसलिए आदर्श मानते हैं क्योंकि ऐसा कहने से आकलन करने वाला दबाव में आ जाता है। लोग उनकी इसलिए आलोचना करते हैं क्योंकि उनकी आलोचना को भी लोग बड़े ध्यान से सुनते हैं। वे इतने ताकतवर हैं कि विदेशों मे स्टेज शो के दौरान भरे मंच से ‘रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप होते हैं…’ संवाद अदा करके दर्शकों की तालियां बटोर सकते हैं और दिलीप कुमार जैसे दिग्गज अभिनेता को अभिनय के दौरान जेब में हाथ डालने पर मजबूर कर सकते हैं लेकिन संघर्ष और उपेक्षा की आग में जलता यह किरदार जैसे ही नायकत्व हासिल करता है, खत्म कर दिया जाता है। फिल्म ‘शक्ति’ में ही ऐसा नहीं होता, कई उदाहरण है जब उन्हें फिल्म को हिट करवाने के लिए मृत्यु का वरण करना होता है। अतिशयोक्ति नहीं होगी अगर यह कहा जाए कि फिल्म की मांग पर नायक को मारने का यह फार्मूला भी उन्हीं की देन है और सच तो यह है कि रील ही नहीं रीयल लाइफ में वे इस फार्मूले के शिकार कई बार बने हैं।<br />
<strong>आम आदमी जैसा</strong><br />
राजनीति में आने से लेकर अपनी कंपनी बनाने तक और उसके बाद इनसे तौबा करने की बात करते हुए भी जुड़े रहना उन्हें एक ऐसा आम-आदमी साबित करता है जो अपने सपनों को साकार करने की भरसक कोशिश करता है और यहीं पर आते-आते उनका हीरोइज्म ध्वस्त होता नजर आता है। जोशो-खरोश से ब्लॉग-लेखन शुरू करते हैं और अचानक बंद करने की बात भी कर देते हैं लेकिन करते नहीं हैं। क्या यह तथ्य नहीं है कि प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई जैसे बीसियों निर्देशकों के बाद भी वे आज तक ऋषिकेश मुखर्जी के असहाय ‘बाबू मोशाय’ से आगे नहीं बढ़े हैं। कभी उनके लिए ऋषिकेश मुखर्जी ने कहा था कि उनके अभिनय का दस फीसदी हिस्सा ही अभी तक सामने आया है, नब्बे फीसदी अभी तक अप्रकट है। वह आने के लिए कुलबुला रहा है और इसे प्रकट करने के लिए वे ‘ब्लैक’ भी स्वीकार कर रहे हैं तो ‘कभी अलविदा न कहना’ तक दौड़ लगाते हैं।<br />
उस पर तुर्रा यह कि आलोचक कहते हैं कि उन्हें असली पहचान तो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ से मिली है। उस पर तुर्रा यह है कि सात हिंदुस्तानी फिल्म सिफारिशी थी। उस पर तुर्रा यह कि उन्हें आज भी एंकरिंग नहीं आती। ऐसे में इन तथ्यों का क्या महत्त्व रह जाता है कि उनके लिए मंदिरों की घंटियां बजती है या गिरजाघर में प्रार्थनाएं होती है। क्या महत्त्व रह जाता है कि जब राखी सावंत की मां यह कहते हुए भावुक हो जाती है कि उनकी रिश्तेदार को आर्थिक मदद की थी और क्या महत्त्व है इस बात का जब राजू श्रीवास्तव कहते हैं कि उनकी नकल से घर चल रहा है। ऐसी घटनाओं की फेहरिस्त बनाई जा सकती है जिसके बीच एक आम आदमी अपनी इंसानियत को बचाने की कोशिश में लगा रहता है। जो अपनी सामर्थ्य के अनुसार आस-पड़ौस का ध्यान रखता है। प्रोत्साहन देता है, आगे बढ़ाता है। यकीनन, उन्होंने इस मोर्चे पर सफलता पाई है और यही वजह है कि देश के बड़े राजनीतिक घराने से उनकी टूटन में भी लोग उनका दोष नहीं मानते। विदूषक और अवसरवादी करार दिए जा चुके लोगों के साथ उनके रहने की मजबूरी को भी सहानुभूति से देखते हैं। एक हीरो के लिए यह संभव नहीं हो लेकिन आम आदमी के लिए इतनी छूट है।<br />
<strong>किसे चाहिए हीरोइज्म?</strong><br />
इस देश में हीरो को सांस के अंतिम स्वर और रक्त की अंतिम बूंद बचे रहने तक लड़ते रहना जरूरी है और सिर्फ लड़ते ही नहीं बल्कि जीतना जरूरी है। सदियों से हम अवतारों की अभ्यर्थना करते आए हैं। नायकों का इंतजार करते आए है और उसे अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की बलिवेदी पर कुर्बान करते रहे हैं, सिर्फ इस अहसान के साथ कि हम तुम्हारी तस्वीर टांग देंगे। वे भी पिछले तीन दशक से हमारी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने दौड़ रहे हैं और इस बीच हमनें उनमें चमत्कार भी ढूंढ़ लिए हैं। आमआदमी का प्रतिनिधित्व करने वाला यह व्यक्ति आज भी समाज का हीरो है लेकिन यह सच भी सच है कि उसकी टूटन और अवसाद से समाज बे-परवाह है। बावजूद इसके कि वह साबित कर चुका है कि उसके पेट में भी दर्द हो सकता है। बेटे के मर्जी की शादी की जिद पर कुंडली मिलान के लिए पंडितों और मंदिरों के चक्कर निकालना पड़ता है। बेटे की शादी की मिठाई ठीक उसी तरह वापस लौटाई जा सकती है जैसे आम-आदमी के साथ होता है और वह बहुत ही थके हुए शब्दों में कह सकता है – वे राजा, हम रंक। इतनी साफगोई के बाद भी कोई यह नहीं मानता। उनकी सफेद दाढ़ी समाज को विचलित कर देती है तो यह उनका दोष तो नहीं लेकिन ऐसा माना जाता है और कुछ दिन बाद यह दाढ़ी भी फैशन बन जाती है। ऐसा लगता है कि उन्हें दंगल में उतार दिया गया है और उत्तेजित करने वालों को कोई परवाह नहीं है। कोई नहीं सोचता कि राजेश खन्ना के समय से लेकर शाहरुख खान के समय से लगातार मुकाबला करने वाले इस व्यक्ति के पास कोई पारलौकिक ताकत नहीं है, आम आदमी है। इस भिड़ंत के लिए हमने कहीं उन्हें रेस का घोड़ा तो नहीं बना दिया है जिसे जीतना है बस जीतते रहना। इस रेस के मैदान में कभी ‘बूम’ के लिए दौड़ रहा है तो कभी ‘नि:शब्द’ और ‘चीनी कम’ के लिए। ‘शहंशाह’, ‘अकेला’ ‘जादूगर’ ‘तूफान’ ‘मृत्युदाता’ ‘रामगढ़ के शोले’ जैसे कई मैदान है, जहां दौड़ाया गया है उन्हें। उनके साथ रहने वाले खुमारी में रह सकते हैं। उन्हें चाहने वाले अपनी चाहत पर गर्व कर सकते हैं। उन्हें प्राप्त कर लेने वाले उत्सव मना सकते हैं लेकिन उनका सच इतना सरल नहीं है। हमारे अंदर दबे हुए जोश और हौसले को निकालने के लिए वह प्राणांतक चोट से उबरने के बाद सीधे फार्म हाउस पर जाते हैं और संवाद अदायगी का अभ्यास करते हैं तो क्या इसलिए कि उनकी फैन-लाइन से निकलकर राज ठाकरे नाम का एक व्यक्ति उन्हीं के खिलाफ मोर्चा खोल लेगा?<br />
<strong>असली खुशी कौन जाने </strong><br />
इस बार जब उनके जन्मदिन पर मैं बहुत खुश हूं कि मैं उस व्यक्ति को बचपन से चाहता रहा जो आज महानायक है तो शायद यह मेरी खुशी हो सकती है। यह कहते हुए भी गर्व कर सकता हूं कि मेरे पत्रकार बनने के पीछे भी उनकी प्रेरणा है क्योंकि उन्होंने ‘मृत्युदाता’ फिल्म के दौरान अपने इंटरव्यू में कहा था कि <em>‘अगर भगवान ने अगले जन्म में इंसान के रूप में जन्म दिया तो पत्रकार बनना पसंद करेंगे।’</em> यह उनके लिए खुशी की बात हो, जरूरी नहीं। क्योंकि उनकी एक सुपर स्टार बनने की खुशी तो उसी समय काफूर हो चुकी थी जब उनके बेटे ने कहा था कि अगर आप मेरी स्कूल के वार्षिकोत्सव में आएंगे तो दूसरे बच्चों के पिता नहीं आएंगे। इसलिए आप स्कूल के वार्षिकोत्सव में नहीं आएं। बेटे को यह इसलिए कहना पड़ता है कि उनकी सुपरस्टारीय सुरक्षा के चलते दूसरे बच्चों के पिता अपमानित महसूस करते हैं। अपने बेटे को स्टेज पर परफॉर्म करते देखने की खुशी से भी वंचित रहने के पीछे एक मात्र अगर कोई वजह रही तो वह उनका सुपरस्टार बनना रहा, ऐसे में वे कहां खुश हैं इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। लोग उनकी खुशी को हर तरह के रोल करने और विज्ञापन करने में ढूंढ़ते हुए व्यंग्य करते हैं कि एक मसाले के विज्ञापन में काम करने की इच्छा जाने कब पूरी होगी लेकिन यह जानने की कोशिश कभी नहीं होती कि वास्तविक खुशी कहां है। आम आदमी के साथ ऐसा ही होता है।<br />
<strong>थोपी जाती है प्रशस्तियां</strong><br />
मैंने अपनी जिंदगी में कोई नायक नहीं देखा है। आम आदमी बहुतेरे देखें हैं जो लड़ने की कोशिश जितनी शिद्दत से करते हैं लेकिन विकल्पों के साथ भी सहज रहते हैं। साहित्य में नायकों के गुण बताए गए हैं। हिंदी फिल्मों को देखते हुए नायक की एक तस्वीर बनाने की कोशिश की है लेकिन वे इन परिभाषाओं के अनुकूल नहीं है। उन्हें दुख होता है, तकलीफ होती है। अवसाद में आते हैं, टूट तक जाने की स्थिति तक जाते हैं, लौटते हैं लेकिन हीरो की तरह नहीं। आम आदमी की तरह। एक ऐसा आम आदमी जो अपने पिता की विरासत को संजोए रखने के लिए हर संभव प्रयास करता है क्योंकि वह जानता है पिता के नाम से ही परिवार चलेगा। आत्मकथा लेखन के लिए मिसाल बने अपने पिता की तरह वे भी आत्मकथा लिखना चाहते हों लेकिन उन्हें लगता है उनके पास आत्मकथा लिखने जैसा कुछ है ही नहीं। आत्मकथा खुद द्वारा लिखी गई होती है, प्रशस्तियां दूसरे गाते हैं। प्रशस्तियां थोपी हुई हो सकती है, अतिरेकपूर्ण हो सकती है लेकिन आत्मकथा में खुद के प्रति जवाबदेह होना पड़ता है। आत्म कथा आम-आदमी की बनती है। महिमामंडन अवतारों और नायकों का होता है।<br />
<strong>मेरी कामना</strong><br />
मैं चाहता हूं कि उन्हें हीरोइज्म से मुक्ति मिले। इस जन्मदिन पर कामना करता हूं कि उन्हें एक आम-आदमी की पहचान मिले। आम-आदमी का प्रतिनिधि माना जाए और भले ही केंद्र सरकार किसी कार्यक्रम में उन्हें बतौर सेलिब्रिटी नहीं बुलाए, किसी को तकलीफ नहीं होनी चाहिए। मुझे लगता है शायद उन्हें इससे खुशी होगी, निश्चित रूप से मुझे ज्यादा। कब तक आखिर कब तक हम उन पर अपने पूर्वाग्रहों और महत्त्वाकांक्षाओं को लादे रखना चाहेंगे। क्या इस आमआदमी को समझने के लिए अब नाम लेने की जरूरत है?<br />
<strong>- हरीश बी. शर्मा</strong></div></strong>Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-82455388966024806012010-09-01T12:31:00.004+05:302010-09-02T16:32:32.286+05:30विनय : जैसा नाम वैसा का वैसा<iframe frameborder="0" scrolling="no" src="http://www.facebook.com/widgets/like.php?href=http://marugandha.blogspot.com/2010/08/blog-post_31.html" style="border: medium none; height: 80px; width: 450px;"></iframe><br />
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: justify;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEieglhDchUa39sHQH5hnJkfqG8-Mux8uaEyYSiHIBw6oZOqe7LQOuzseuGkBbdfbTT9-RdNKlKrXqvTQJzj3EBApoF6TROeIOiJ4pQjSXi7kILj_iGMAJQLtnJabusw9JeOLNlOG4-PQi98/s1600/vinay.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEieglhDchUa39sHQH5hnJkfqG8-Mux8uaEyYSiHIBw6oZOqe7LQOuzseuGkBbdfbTT9-RdNKlKrXqvTQJzj3EBApoF6TROeIOiJ4pQjSXi7kILj_iGMAJQLtnJabusw9JeOLNlOG4-PQi98/s320/vinay.jpg" width="252" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Vinay N. Joshi</td></tr>
</tbody></table><div style="text-align: justify;">नामकरण संस्कार का अपना एक अभिप्राय है। यह बच्चे से जुड़ी आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसा ही एक नाम है विनय। पूरा नाम विनय एन. जोशी। बीकानेर से प्रकाशित होने वाली चर्चित वेब-पत्रिका <b>छोटीकाशी डॉट कॉम</b> के सर्वेसर्वा विनय जोशी आज यानी एक सितंबर को 27 साल के हो रहे हैं। इस 27 साल के सफरनामे में विनय के पास डिग्रियों की भरमार तो है ही लेकिन उसने इस अवधि में अपने से बड़ी उम्र के लोगों को इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी से परिचित कराने का जो बीड़ा उठाया है, वह न सिर्फ अद्भुत है बल्कि सुखद भी है। कई लोगों को नेट-फ्रेंडली कर चुके विनय को बदलते समय में बदल रही युवाओं की छवि के विपरीत एक ऐसे सकारात्मक युवक के रूप में रखा जा सकता है जो अपने आईटी ज्ञान या डिग्रियों या जल्दी ही विदेश जाने की खबर से अधिक इस बात के लिए पहचाना जाता है कि वह एक ऐसा व्यावहारिक युवक है जिसके संस्कार आज भी मुंह बोलते हैं। बीकानेर शहर के लिए यह खबर बड़ी हो सकती है कि जल्दी ही विनय विदेश जा रहा है लेकिन विनय के लिए यह बात ज़्यादा मायने नहीं रखती। सच तो यह है कि यही वह कंपनी है जो पिछले तीन साल से विनय की सेवाएं ले रही हैं। अब चाहती है कि विनय पूर्णकालिक रूप से कंपनी के लिए काम करे।<br />
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</div><div style="text-align: justify;">सैकड़ों लोगों को ब्लॉगिंग, कम्युनिटीज और सोशल नेटवर्किंग के जरिये जोड़ चुके विनय ने सही अर्थों में अपने ज्ञान को बांटने का कार्य किया है और शायद यही वजह है कि उसे गुणात्मक रूप से मिल रहा है।<br />
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</div><div style="text-align: justify;">अध्यात्म में गहरी रुचि रखने वाल विनय की अपनी एक दिनचर्या है जिसमें संतों का प्रतिदिन आशीर्वाद लेना शामिल है। सिर्फ इतना ही नहीं लंबे-चौड़े नेटवर्क वाले विनय ने अपने रेफरेंस-परसन के रूप में श्री शिवसत्यनाथजी महाराज और संवित् सोमगिरिजी महाराज जैसी विभूतियों का नाम रखा है जो विनय की सोच को पूरी तरह प्रकट करता है। तेजी से दौड़ते समय में भी विनय जहां व्यसन से पूरी तरह से दूरी बनाए हुए हैं वही देश के प्रमुख मीडिया समूह से इतना करीब है कि लगभग हर दिन विनय के न्यूज आयटम या फोटोग्राफ्स बड़े समाचार पत्र और वेब-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। बहुत ही कम उम्र में एक हाइटेक पत्रकार के रूप में विनय ने जो पहचान बनाई है वह बीकानेर के लिए गौरवपूर्ण उपलब्धि है। सबसे बड़ी बात यह है कि इतनी उपलब्धियों के बावजूद विनय का विनयभाव कहीं कम नहीं है। अहं और बेरुखी से दूर मुस्कुराते हुए सभी के काम आने वाले, सभी को साथ लेकर चलने की सोच रखने वाले विनय ने वस्तुत: अपने माता-पिता के उस सपने को पूरा किया है जो उन्होंने विनय का नामकरण करते समय देखा होगा।<br />
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</div><div style="text-align: justify;">नाम जैसे ही गुण वाले विनय का यह जन्मदिन और अधिक उपलब्धियों का प्रतीक बने। विनय बीकानेर में रहे या जयपुर, दिल्ली या के हॉलैंड। हर जगह उसके संस्कार और व्यवहार जिंदा रहेंगे। हम ऐसी कामना करते हैं। यशस्वी विनय के लिए इस मुबारक दिन पर सिर्फ इतना ही क्योंकि विनय ही है जिसने मुझे नेट-फ्रेंडली बनाने में निर्णायक भूमिका निभाई।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><b>- हरीश बी. शर्मा </b><br />
<br />
</div><iframe frameborder="0" scrolling="no" src="http://www.facebook.com/widgets/like.php?href=http://marugandha.blogspot.com/2010/08/blog-post_31.html" style="border: medium none; height: 80px; width: 450px;"></iframe>Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-14222549681964667342010-08-14T00:25:00.000+05:302010-08-14T00:25:18.087+05:30<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhclcunHxMDSL8zdvvnx0IfUxPMSCwrdyrtP_8WiIR3J3T56fcW2qo7KZjFkk-DvvFkkdzSLx-FmuzKftCtd9BZ4mF2frLfGxTslzH4ECxlyCIAq_6EGrR9hOGPah9rJGHut4w_KL5evXhL/s1600/GARV.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhclcunHxMDSL8zdvvnx0IfUxPMSCwrdyrtP_8WiIR3J3T56fcW2qo7KZjFkk-DvvFkkdzSLx-FmuzKftCtd9BZ4mF2frLfGxTslzH4ECxlyCIAq_6EGrR9hOGPah9rJGHut4w_KL5evXhL/s320/GARV.jpg" /></a></div>Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-5521039334738474872010-08-07T22:26:00.001+05:302010-08-07T22:26:41.197+05:30बस कलम चलाते हैं हम तो, बन जाये तो अल्फाज़ बनेआवेदन ही करते हैं, कोई माने तब कोई बात बने <br />
बस कलम चलाते हैं हम तो, बन जाये तो अल्फाज़ बने <br />
अल्फाज़ निराले ऐसे की सुनकर दिल में एक प्यास जगे <br />
जिस प्यास को तृप्ति देने को, पनघट भी घर के पास बने <br />
पनघट ऐसा हो जिस पर, नित बादलवा बरसात करे <br />
छम-छम नाचे मोर मधुर-स्वर, कल-कल पानी साज़ बने <br />
पानी बरसे चाहे आँखों से, चाहे घन घनघोर बरसात करे <br />
बस, देखे जो वह बह जाये, सागर जैसा श्रृंगार बने <br />
सागर-सा गहरा नीला-सा, बस नीलाम्बर हो बाहों में <br />
चंदा जैसा चंचल लहरें, विद्युत रेखा पतवार बने <br />
पतवार बनती है कविता, जख्मों की टीस दवात बने <br />
मौसम भी खिदमतगर बने जब बीते दिन हम याद करेHariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-49265081982206763842010-08-03T23:23:00.001+05:302010-08-03T23:23:15.990+05:30ये दोस्ती...सदाबहार अभिनेता धर्मेन्द्र सदा ही साफगोई के लिए विख्यात रहे हैं. मुझे याद है बीकानेर के सांसद रहते हुवे उन्होंने यह राय भी दी कि अगर कांग्रेस और भाजपा दोनों मिलकर देश चलाये तो कोई समस्या ही नहीं रहे. हाल ही में उन्होंने इंडियन आइडोल शो के दौरान ऐसी ही साफगोई से कहा जब पूछा गया कि जय और वीरू की जोड़ी आज भी याद की जाती है, लेकिन असल में आज भी जय और वीरू मिलते हैं क्या? इस सवाल का जवाब में उन्होंने कहा '' क्या करूँ वो पीता नहीं है''. धर्मेन्द्र का ये जवाब दोस्ती की साख भरने वाला था. बल्कि दोस्त का कद बढाने के लिए खुद को दांव पर लगाने जैसा था. मैंने ''एकलव्य'' की शूटिग के दौरान बीकानेर आये अमिताभ से भी ऐसा सवाल पूछा था. अमिताभ बच निकले थे. उन से अपने दोस्त धर्मेन्द्र के राजनीति में आने की वजह पूछी गई तो साफ़ कह दिया जो गए हैं उन से पूछें, मैं तो वापस आ गया हूँ. <br />
कहने को आप धर्मेन्द्र को भोला कह सकते हैं. लेकिन अमिताभ बच्चन को चतुर नहीं साबित कर सकते. कौन नहीं जानता की धर्मेन्द्र को बीकानेर में जीतने के बाद हर मोर्चे पर विपरीत हालात मिले. लेकिन रणछोडदास नहीं बने. इस्तीफ़ा नहीं दिया. अपनी कोशिशों से बीकानेर के विकास पर पैसा भी लगाया लेकिन श्रेय हासिल नहीं कर पाए...अमिताभ चतुर होते तो रिश्ते बनाये रखते. दोनों कलाकार हैं, जी रहे हैं अपनी तरह से. एक है जो पीने को हर मुलाकात की शर्त मानता है ताकि कुछ भी निकाले तो इल्जाम दारू पर जाये और दूसरा इसी शर्त के चलते दोस्तों से मिलना भी टाल रहा है. उस के मन में ज़माने के इतने राज़ दफ़न है के चाहता ही नहीं हे के कुछ भी बहर निकल पाए. इसीलिए आवरण पर आवरण ओढ़ रहा है. <br />
काश! दोनों भोले और भले कलाकारों को जो राजनीति के ककहरे में ही असफल हुवे हैं, किसी और बहाने से मिलने का मौका मिल जाये. धर्मेन्द्र-अमिताभ तो बात कहने का जरिया है दोस्तों, इस सन्दर्भ में सोचें, हम ने कितने आवरण ओढ़ रखें हैं. अगर दोस्तों से दूर हो जायेंगे तो बचेगा क्या?Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-12197746467791300452010-08-02T13:45:00.001+05:302010-08-02T13:45:55.731+05:30कथित फ्रेंड शिप डे पर सबसे आदर्श कार्यक्रमविभूति नारायण राय के वक्तव्य पर मचे बवाल को लेकर अभी कुछ मान्यता बना ही पाता की रात को हिंदी के ख्यातनाम साहित्यकारों की लड़ाई देख मन कसैला हो गया. दरअसल, बात पूरी तरह से विरोध के लिए विरोध की थी. ठीक वैसे ही जैसे सामान्यतया होता है. स्टार न्यूज़ की इस पेशकश को मैं कथित फ्रेंड शिप डे पर सबसे आदर्श कार्यक्रम का दर्ज़ा देता हूँ जिसमे अपने-अपने दोस्तों को बचाने का शानदार उपक्रम किया गया. मुझे नहीं लगता की राय ने जो कहा वो किसी राष्ट्रीय रहस्य से पर्दा उठाने जैसा था. हाँ, सन्दर्भ गलत ले लिए. महिला लेखिकाओं को चोट लगी, यह गलत था, गलत हुआ. उन्हें इस तरह किसी समूह पर टिप्पणी करने के अपने गुप्त एजेंडे के लिए एक समाज को अपमानित करने का हक़ नहीं बनता. <br />
अपने-अपने सच को जीना गलत नहीं है लेकिन थोपना निहायत ही गैर जिम्मेदाराना है. राय हो या मैत्रेयी पुष्प. सभी को अपनी बात कहने का हक़ है लेकिन दोनों ही प्रतिबद्ध लेखक हैं इसलिए उन से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि किसी दूसरे की लोकप्रियता से चिढ़ते हुवे, अपनी कुंठा निकाले. वैसे भी हिंदी का कोई खास भला इस तरह के विवादों से नहीं होने वाला हे. कल अगर यह कहना पड़ा के ऐसे लेखकों से भी हिंदी का भला नहीं हो रहा है तो शायद समूह की सुरक्षा में चल रहे सृजन को बचाने न तो राजेंद्र यादव आयेंगे और ना ही भारत भरद्वाज को सुना जायेगा. <br />
वास्तव में हिंदी का भला करना है तो रचाव पर ध्यान देना होगा. प्रतिबद्ध हो कर लिखना बड़ा दुष्कर है. लेकिन दूसरे के लिखे हुवे की खुद से टोन नहीं मिलने पर चिढना बिल्कुल भी श्रेयष्कर नहीं.Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-85559837690570313072010-07-29T22:52:00.000+05:302010-07-29T22:52:35.263+05:30रिक्शे पर तिरंगा<div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhltt80kGliq_QyH45RUVuP6ula9cGnUDdbyeQVrV46FlIK5_9wE8JJBjjXx3e4ICdV-ihnntdi6ZlmNp9V_oJ0HbFum5R_D1GzXWDBEL_wR-OqicIgCKYuZ4Fj9Smwbe3zpKDyQ6po8dfj/s1600/RamPrasad.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhltt80kGliq_QyH45RUVuP6ula9cGnUDdbyeQVrV46FlIK5_9wE8JJBjjXx3e4ICdV-ihnntdi6ZlmNp9V_oJ0HbFum5R_D1GzXWDBEL_wR-OqicIgCKYuZ4Fj9Smwbe3zpKDyQ6po8dfj/s320/RamPrasad.jpg" /></a></div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">वह कोई नई हवा के कारण बदनाम यूथ नहीं है जो 15</div><div style="text-align: justify;">अगस्त, 26 जनवरी आते ही तिरंगा टी-शर्ट पर टांग लेता है।</div><div style="text-align: justify;">वह राजनेता भी नहीं है जो चुनाव के दिनों में प्रचार के</div><div style="text-align: justify;">लिए देशभक्ति के गीतों के कैसेट्स खरीदता है। उसके लिए हर</div><div style="text-align: justify;">दिन 15 अगस्त है, हर दिन 26 जनवरी। वह रोजाना अपनी साइकिल-</div><div style="text-align: justify;">रिक्शा पर तिरंगा लगाकर निकलता है। शाम को पूरे</div><div style="text-align: justify;">स मान के साथ झंडा उतारकर घर में रख लेता है। जयपुर</div><div style="text-align: justify;">की सड़क पर आम तौर पर दिख जाने वाले रामप्रसाद की दिनचर्या</div><div style="text-align: justify;">का यह हिस्सा बन गया है। रोजाना सुबह रिक्शा पर</div><div style="text-align: justify;">तिरंगा लगाना, आरती करना और मजदूरी पर निकल जाना,</div><div style="text-align: justify;">उसकी दिनचर्या का हिस्सा है। जवाहरण लाल नेहरु मार्ग पर</div><div style="text-align: justify;">इसे देखा जा सकता है।</div><div style="text-align: justify;">वह दिहाड़ी मजदूर है जो रोजाना सौ रुपए कमाता है। किस्मत</div><div style="text-align: justify;">अच्छी होती है तो दो सौ रुपए तक कमा लेता है। रामप्रसाद</div><div style="text-align: justify;">पढ़ा-लिखा नहीं है। सवाल पूछने पर कहता है-अंगूठा टेक</div><div style="text-align: justify;">हूं जी। वह नहीं जानता, इस तरह तिरंगा लेकर घूमने पर</div><div style="text-align: justify;">कानून क्या कहता है। उसे तो यह पता है कि इस बार 15 अगस्त</div><div style="text-align: justify;">को खादीमंदिर से एक नया झंडा खरीदना है। इस झंडे के लिए</div><div style="text-align: justify;">350 रुपए की अतिरिक्त कमाई करनी है, जुटा है रामप्रसाद।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div>Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-43042393245925894672010-07-19T22:21:00.001+05:302010-07-19T22:21:52.641+05:30सांसें उधार मांग कर रस्में निभाई हैक्या खूब जीकर जिंदगी हमने बितायी है<br />
सांसें उधार मांग कर रस्में निभाई है <br />
रखना था हरेक पल का हिसाब हमें यारों <br />
जिस में थे जागे रूठकर वे रातें गिनाई है <br />
कुछ नाज़-नखरे, इंतज़ार, वादे ओ कुछ व्यवहार <br />
दीवानगी, नादानियाँ प्यारे वफाई है <br />
गर पूछ लोगे जिंदगी जीने का मुझ से राज़ <br />
कैसे कहूँगा फ़क़त कुछ यादें बचाई हैं <br />
ज़ख्मों का है तकाजा, देना है एक ज़ख़्म<br />
दोस्त कहते हो उसे, वो तो हरजाई हैHariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-84257801781187452192010-07-18T22:20:00.000+05:302010-07-22T13:26:47.676+05:30लिखा हुआ इतिहास बनता है लेकिन हकीकत बन जाए तो ...<span style="font-family: Mangal; font-size: small;">एक खबर किस तरह नाटक के लिए थीम दे सकती है, इसका उदाहरण है मेरा नाटक हरारत। वर्ष 2003 में एक खबर फाइल की थी लव स्टोरी-2003: पति-पति और किन्नर। इस खबर में एक ऐसे किन्नर की कहानी थी जिसने एक पुरुष से शादी रचाई लेकिन जब उसे लगा कि पुरुष को पत्नी के रूप में एक स्त्री की जरूरत है तो उसने खुद पहल करके उसकी शादी की। बीकानेर रेलवे स्टेशन से शुरू हुई यह प्रेम कहानी बिहार के गांव तक पहुंची और इस तरह एक खबर ने रूप लिया। लेकिन किन्नर सीमा और उसके साथी सत्यनारायण से बातचीत में ऐसे कई भाव सामने आए जो खबर नहीं बन सकते थे। पत्रकार की सीमा जहां कसकती है, रचनाकार उसे संभाल लेता है। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। नाटक हरारत लिखा गया और जवाहर कला केंद्र, जयपुर की लघु नाटय लेखन प्रतियोगिता में प्रथम भी रहा। इस नाटक की मूल थीम रही कि क्या किसी किन्नर के मन में मां या बाप बनने की इच्छा नहीं जागती? जब ऐसा होता है तो क्या होता होगा। बस इसी आधार पर रचे गए नाटक में एक युवती के कुंवारी मां बनने की जिद और किन्नर के उसकी जिद को पूरा करने के लिए दिए गए साथ को दर्शाया गया। दुनियावी हकीकतों और नाटकीय पंच के बीच नाटक की मूल थीम को थामे रखना एक बड़ी चुनौती थी जिसके लिए अंत में एक दृश्य क्रियेट किया गया कि अंदर प्रसव वेदना से युवती तड़प रही है और बाहर किन्नर। इस वेदना को सह नहीं पाने के कारण युवती की मौत हो जाती है और इस तरह बच्चा किन्नर को मिल जाता है। </span> <span style="font-family: Mangal; font-size: small;">पहला मंचन विपिन पुरोहित ने जयपुर में किया। इसके बाद हाल ही में शिमला के मनदीप मन्ना ने इस नाटक का मंचन दो-तीन बार किया। हालांकि शिमला का मंचन मैं देख नहीं पाया लेकिन जिस तरह के फोटोग्राफ्स मनदीप मन्ना ने भेजे, कहा जा सकता है कि उन्होंने मंचन में अपनी पूरी ताकत झोंक दी। वास्तव में नाटक मंच पर ही साकार होता है। एक श्रेष्ठ निर्देशक का हाथ मिल जाए तो पूर्णाकार हो जाता है। </span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: small;">हरारत नाटक को लेकर मेरे अनुभव बड़े ही रोचक रहे। पहले मंचन के बाद एक इटेलियन शोधार्थी इयान वुलफोर्ड जवाहर कला केंद्र के रंगायन से निकले और पूछते-पूछते मेरे पास आए। उन्होंने हिंदी में यह कहकर मुझे अचंभित ही नहीं बल्कि अभिभूत कर दिया कि इस नाटक को देखकर उनके आंसू निकल गए। फिर उन्होंने इस थीम को लेकर मुझसे पूरा साक्षात्कार भी किया। </span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: small;">सबसे रोचक संयोग तो यह रहा कि नाटक के मंचन के तीन साल बाद एक दिन अचानक से मेरा एक किन्नर कमला से साबका हुआ जिसने एक अनाथ बच्चे को पालने का बीड़ा उठाया जो उसे कचरे के ढेर पर बंद डब्बे में मिला। कमोबेश ऐसा ही मेरा क्लाईमैक्स था। इस संयोग के साक्षी रहने रंग निर्देशक सुधेश व्यास। बाद में यह भी खबर बनी कि कमला के हाथ में करमा की रेखा। कमला का कहना था कि किस्मत से यह लड़की मिली है, इसलिए इसका नाम भी करमा रखा है। कहा गया है कि लिखा हुआ इतिहास बन जाता है लेकिन जो कल्पना के आधार पर लिखा जाता है वह हकीकत में तब्दील हो जाता है तब कलम से डर लगने लगता है। मेरे साथ अमूमन ऐसा होता है लेकिन लिखने की चाहत कहती है - डरना मना है। </span><br />
<br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: small;"><br />
</span><br />
<span style="font-family: Mangal; font-size: small;">''हरारत'' का शिमला में मंचन </span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhXQEBLPPy3fSr__LdVYUd4WBPhHAz599Ll76Hrjo7lZ2XYNPPaZMeRNSPd7Npf_a7tJGc4wFx58jYPPCZGrrYfCTaYANGebfLUjdr4nASV6ESnzUz351b9NQwHU8mLP7FPMINbDvcvB2Ib/s1600/0__57_.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhXQEBLPPy3fSr__LdVYUd4WBPhHAz599Ll76Hrjo7lZ2XYNPPaZMeRNSPd7Npf_a7tJGc4wFx58jYPPCZGrrYfCTaYANGebfLUjdr4nASV6ESnzUz351b9NQwHU8mLP7FPMINbDvcvB2Ib/s320/0__57_.JPG" /></a><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2Hbe9wHB0nDPQbx7RdiuOsgZGFLqheDfwTeNbyKpg3V4x-bBeUMvrxkFkWvICsZ1YLtPc6IOlblWPXUpnO12gaqBc0i7Otc28ycjr6qwdqffsPxqolkHRw6pzvIqruym_N2jbvQynwGfm/s1600/0__60_.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2Hbe9wHB0nDPQbx7RdiuOsgZGFLqheDfwTeNbyKpg3V4x-bBeUMvrxkFkWvICsZ1YLtPc6IOlblWPXUpnO12gaqBc0i7Otc28ycjr6qwdqffsPxqolkHRw6pzvIqruym_N2jbvQynwGfm/s320/0__60_.JPG" /></a><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHceSHO23uwGxluh3FqiNktQHZNeDPiSROW0RZe9QfZzlIsk2mgmtXn7nJuN0rRHZfFw2bsX51sWZT9D3lJan2gwNq-P4_eKHhGmgsfbrg1mO8yrTlFb_4JRWd6Gh2IwBeyLuq9ft2rdjN/s1600/scan0003.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHceSHO23uwGxluh3FqiNktQHZNeDPiSROW0RZe9QfZzlIsk2mgmtXn7nJuN0rRHZfFw2bsX51sWZT9D3lJan2gwNq-P4_eKHhGmgsfbrg1mO8yrTlFb_4JRWd6Gh2IwBeyLuq9ft2rdjN/s320/scan0003.jpg" /></a><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg8rpgI4cEIwU_DbBPIxd-CEx5cQ-UeYbVcIizMg7PbE31eXhuOKuPCxzPbRrUIFwOT66ucfH7iV7HgiIZeKn48DljJO0ogIWWsI5eSOxsQ0qQ-7P0SlLVaQiShFkXNDT44WhfJqR02kmkd/s1600/0__67_.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg8rpgI4cEIwU_DbBPIxd-CEx5cQ-UeYbVcIizMg7PbE31eXhuOKuPCxzPbRrUIFwOT66ucfH7iV7HgiIZeKn48DljJO0ogIWWsI5eSOxsQ0qQ-7P0SlLVaQiShFkXNDT44WhfJqR02kmkd/s320/0__67_.JPG" /></a><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjXoan8ZmP-cWH8p_QrjKilfLGa6emssjrp3xUaQFLlPth7Gs5hLf07wGKhFbR9EY5ERLuBjR6v311zhU5UavOXr8TxqPjWGfMiIsG1l1D4cTX-cL4Lf2BHAHuHyLDLyPYP1rrtPnphZmQl/s1600/0__69_.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; 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margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgn5_xbNAJQwHKVBtT3SZl5lvu7afr892XUz2TTo5ut_c-Cl4jESuxAk46SkuOdri05gtvAMZT2VUMRNQSgpc1mUHT7bvNJlNEdQnBO4gTTVIjrmyAjhefTHXWT2w2RepkMfH6Z31sQY2Oq/s320/0__168_.JPG" /></a></div>Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-15876374663401722912010-07-16T12:49:00.000+05:302010-07-16T12:49:12.956+05:30बोल क्या चाहता है भाई...मानसून के बेरुखे व्यवहार और पाल बाबा के चमत्कार या के सचिन, सायना और धोनी के बीच बढती अमीरी का भले ही कोई मतलब नहीं हो लेकिन बहस जारी है. बावजूद, यह प्रश्न यक्ष ने जैसा किया वैसा है कि आम आदमी किसे पसंद करता है ? सिनेमा से लेकर विज्ञापन तक ये चिंता है क्योंकि ये आम आदमी ही मुआ सारी अर्थ व्यवस्था की धुरी बन गया है. रूपया नए कलेवर में आया तो आम आदमी जान ना चाहता है की इस से उसे क्या फायदा होगा. लेकिन ये कोई नहीं जानता. <br />
यानी जो बात आम आदमी जान ना चाहता है वो कोई नहीं जानता. पाल बाबा भी नहीं. मानसून तो आम आदनी के लिए विपदाओं की वज़ह बन जता है, उसे इस से लेना क्या. हाँ, लेने के देने जरुर पड़ जाते हैं. पहले उसने अमीरों को और अमीर होते देखा फिर फिल्म वालों को और अब खिलाड़ियों को अमीर बनते देख रहा है. उसने सुना गरीबी हटेगी, बढ़ गई. उस ने माना '' खेलोगे-कूदोगे तो होगे खराब... '' यह भी गलत साबित हुआ. <br />
वह लगातर गलत साबित हो रहा है और खुद को हर बार नए सिरे से स्थापित करने की कोशिश कर रहा है. दूसरी और उस पर शोध हो रहे हैं. जान ने की कोशिश हो रही है की वो क्या चाहता है. अगर ये पता चल जाये तो लोग अपने प्रोडक्ट लाँच करे, फ़िल्में बनाये, विज्ञापन तैयार करें. <br />
पता नहीं गलत कौन हैं. आम आदमी या आम आदमी को बहुत कुछ मान ने वाले? कहीं न कहीं बड़ा सूराख है. जब तक इस का पता नहीं चल जाता ये आम आदमी इसी तरह चुइंगम बना रहेगा. सूना है इस देश में पाल बाबा की परम्परा में तोते, बैल और चिड़ियाँ रही है....<br />
<b style="color: orange;"><span style="color: #783f04;">अन्य आलेख देखें</span> - <span style="color: #0b5394;">www.harishbsharma.com</span></b>Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-90244995911297827902010-07-13T22:20:00.000+05:302010-07-13T22:24:40.933+05:30बधाई ''हंस'' टूल बना, अब आपकी बारी<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiK7EKt-c_-j6vhlZ8TP8z48N3m08ZvOBaRtVYlLCpnrYVWl97I8_kKxjN_f-mDd3vlQO0T1_cGqa7scS-M6JvXxBEUOxpxOk_wxEyhKOHgvW6JhFByc2cJRMtHd_DaoR_nb_5BhC-5hvWC/s1600/hans+july+10.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiK7EKt-c_-j6vhlZ8TP8z48N3m08ZvOBaRtVYlLCpnrYVWl97I8_kKxjN_f-mDd3vlQO0T1_cGqa7scS-M6JvXxBEUOxpxOk_wxEyhKOHgvW6JhFByc2cJRMtHd_DaoR_nb_5BhC-5hvWC/s320/hans+july+10.jpg" /></a></div>बांसवाड़ा के भारत दोषी ने ''हंस'' में एक आलेख लिखकर विवाद के रास्ते चर्चित होने का तरीका अपनाया है. भाई दुलाराम सारण ने इस आलेख कि स्केनिग करवा के मेल भेजे है. इस तरह दोषी के अभियान को आगे बढाया है. मुझे नहीं लगता के ऐसा पहली बार है, इसलिए मुझे दोषी पर कोई दोषारोपण भी नहीं करना. मुझे लगता है उन्हें ऐसा करके सुकून मिलता है. आज के युग में लोग सुकून के लिए क्या-क्या नहीं करते. दोषी ने इसके लिए ''हंस '' को टूल बना लिया तो उन्हें बधाई देना चाहूँगा. <br />
स्वाभाविक रूप से''हंस '' में छपे को आज भी गंभीरता से पढने वालों कि कमी नहीं है, राजस्थानियों को दर्द हुआ तो ये दर्द अपनों का दिया ही है. वो एक शेर भी तो है हमें तो <i>'' अपनों ने लूटा, गैरों में कहाँ दम था, कश्ती वहां डूबी जहाँ पानी बहुत कम था''</i> लिहाजा इस बार राजस्थानी कि नाव चम्बल में हिचकोले खाती दिख रही है. आभार भारतजी का. <br />
मुझे एक कविता बड़ी प्रभावित करती है...<br />
<b>ये अच्छा ही तो करते हैं </b><br />
<b>जो भाई-भाई होकर</b><br />
<b>आपस में लड़ते हैं</b><br />
<b>जरा सोचो </b><br />
<b>जब एक भाई </b><br />
<b>अपने दूसरे भाई को नहीं मार पायेगा </b><br />
<b>तो भार लाद बन्दूक का</b><br />
<b>वो दुश्मन के सामने </b><br />
<b>किस मुंह से जायेगा ? </b><br />
इसलिए, अगर ये किसी के सामने सीना ताने रहने के लिए विरोध हो रहा है तो दोषी जी के इस अभियान पर क्या आपत्ति हो सकती है. खासतौर से आदिवासियों को?<br />
कौन नहीं जानता राजस्थान में आदिवासी कहाँ रहते हैं? <br />
राजस्थानी संस्कृति का आधार क्या है? <br />
राजस्थानी भाषा कितनी समृद्ध है ? <br />
लेकिन, इस देश में नागरिक अधिकारों के नाम पर कहा तो कुछ भी जा सकता है. कहे हुवे को सहन करने के नाम पर अगर किसी कि मेरे से दीगर राय हो तो जवाब हंस के माध्यम से देने का रास्ता साफ़ हो गया है, इसलिए बधाई!<br />
साहित्यकार रवि पुरोहित कि बात ठीक है के ''हंस '' ने जब ये मुद्दा उठा ही लिया है तो जवाब भी इसी माध्यम से दिया जाना चाहिए. <br />
यक़ीनन, ''हंस '' अगर टूल भारत दोषी के लिए बन सकता है तो जवाब प्रकाशित करने जितने काम का तो राजस्थानियों के लिए भी साबित हो सकता है.Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8382659881978514205.post-38956417654122795162010-07-07T18:26:00.000+05:302010-07-07T18:26:10.847+05:30तुम तो ना हो रेतरेत के समंदर से निकलने को व्याकुल वो अग्निपिण्ड/<br />
जो फिर रेत को ही तपाएगा/<br />
...और रेत है कि... सहेगी सब/ कहेगी न कुछ/ ...<br />
आखिरकार/ थक कर / वो खुद ही लौट आएगा/<br />
हारा हुआ या के फिर... होने को आतप्त /<br />
जाने कौन भरता है सूरज में इतनी गर्मी? <br />
<b><i>---एक सुबह जल्दी उठा तो धोरों से निकलते सूरज को देखा - शब्द निकले, सवाल बन गए...</i></b>Hariish B. Sharmahttp://www.blogger.com/profile/01016007919647306863noreply@blogger.com4