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Sunday, October 10, 2010

सफल आमआदमी, असफल नायक

 

Big-B-with-HBवे एक सफलतम आम आदमी हैं लेकिन एक असफल नायक हैं जिसे हर बार सहारे के लिए ऐसे लोगों को साथ रखना पड़ता है जो वस्तुत: उनके ताप से अपनी रोटी सेंकना चाहते हैं बल्कि सेक भी लेते हैं। आलोचक उन्हें जितना महत्त्वाकांक्षी और अवसरवादी बताते हैं, उनका लाभ लेने की योजना बनाने वाला उनसे भी अधिक होशियार और हुननमंद हैं। लोग उन्हें इसलिए आदर्श मानते हैं क्योंकि ऐसा कहने से आकलन करने वाला दबाव में आ जाता है। लोग उनकी इसलिए आलोचना करते हैं क्योंकि उनकी आलोचना को भी लोग बड़े ध्यान से सुनते हैं। वे इतने ताकतवर हैं कि विदेशों मे स्टेज शो के दौरान भरे मंच से ‘रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप होते हैं…’ संवाद अदा करके दर्शकों की तालियां बटोर सकते हैं और दिलीप कुमार जैसे दिग्गज अभिनेता को अभिनय के दौरान जेब में हाथ डालने पर मजबूर कर सकते हैं लेकिन संघर्ष और उपेक्षा की आग में जलता यह किरदार जैसे ही नायकत्व हासिल करता है, खत्म कर दिया जाता है। फिल्म ‘शक्ति’ में ही ऐसा नहीं होता, कई उदाहरण है जब उन्हें फिल्म को हिट करवाने के लिए मृत्यु का वरण करना होता है। अतिशयोक्ति नहीं होगी अगर यह कहा जाए कि फिल्म की मांग पर नायक को मारने का यह फार्मूला भी उन्हीं की देन है और सच तो यह है कि रील ही नहीं रीयल लाइफ में वे इस फार्मूले के शिकार कई बार बने हैं।
आम आदमी जैसा
राजनीति में आने से लेकर अपनी कंपनी बनाने तक और उसके बाद इनसे तौबा करने की बात करते हुए भी जुड़े रहना उन्हें एक ऐसा आम-आदमी साबित करता है जो अपने सपनों को साकार करने की भरसक कोशिश करता है और यहीं पर आते-आते उनका हीरोइज्म ध्वस्त होता नजर आता है। जोशो-खरोश से ब्लॉग-लेखन शुरू करते हैं और अचानक बंद करने की बात भी कर देते हैं लेकिन करते नहीं हैं। क्या यह तथ्य नहीं है कि प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई जैसे बीसियों निर्देशकों के बाद भी वे आज तक ऋषिकेश मुखर्जी के असहाय ‘बाबू मोशाय’ से आगे नहीं बढ़े हैं। कभी उनके लिए ऋषिकेश मुखर्जी ने कहा था कि उनके अभिनय का दस फीसदी हिस्सा ही अभी तक सामने आया है, नब्बे फीसदी अभी तक अप्रकट है। वह आने के लिए कुलबुला रहा है और इसे प्रकट करने के लिए वे ‘ब्लैक’ भी स्वीकार कर रहे हैं तो ‘कभी अलविदा न कहना’ तक दौड़ लगाते हैं।
उस पर तुर्रा यह कि आलोचक कहते हैं कि उन्हें असली पहचान तो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ से मिली है। उस पर तुर्रा यह है कि सात हिंदुस्तानी फिल्म सिफारिशी थी। उस पर तुर्रा यह कि उन्हें आज भी एंकरिंग नहीं आती। ऐसे में इन तथ्यों का क्या महत्त्व रह जाता है कि उनके लिए मंदिरों की घंटियां बजती है या गिरजाघर में प्रार्थनाएं होती है। क्या महत्त्व रह जाता है कि जब राखी सावंत की मां यह कहते हुए भावुक हो जाती है कि उनकी रिश्तेदार को आर्थिक मदद की थी और क्या महत्त्व है इस बात का जब राजू श्रीवास्तव कहते हैं कि उनकी नकल से घर चल रहा है। ऐसी घटनाओं की फेहरिस्त बनाई जा सकती है जिसके बीच एक आम आदमी अपनी इंसानियत को बचाने की कोशिश में लगा रहता है। जो अपनी सामर्थ्य के अनुसार आस-पड़ौस का ध्यान रखता है। प्रोत्साहन देता है, आगे बढ़ाता है। यकीनन, उन्होंने इस मोर्चे पर सफलता पाई है और यही वजह है कि देश के बड़े राजनीतिक घराने से उनकी टूटन में भी लोग उनका दोष नहीं मानते। विदूषक और अवसरवादी करार दिए जा चुके लोगों के साथ उनके रहने की मजबूरी को भी सहानुभूति से देखते हैं। एक हीरो के लिए यह संभव नहीं हो लेकिन आम आदमी के लिए इतनी छूट है।
किसे चाहिए हीरोइज्म?
इस देश में हीरो को सांस के अंतिम स्वर और रक्त की अंतिम बूंद बचे रहने तक लड़ते रहना जरूरी है और सिर्फ लड़ते ही नहीं बल्कि जीतना जरूरी है। सदियों से हम अवतारों की अभ्यर्थना करते आए हैं। नायकों का इंतजार करते आए है और उसे अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की बलिवेदी पर कुर्बान करते रहे हैं, सिर्फ इस अहसान के साथ कि हम तुम्हारी तस्वीर टांग देंगे। वे भी पिछले तीन दशक से हमारी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने दौड़ रहे हैं और इस बीच हमनें उनमें चमत्कार भी ढूंढ़ लिए हैं। आमआदमी का प्रतिनिधित्व करने वाला यह व्यक्ति आज भी समाज का हीरो है लेकिन यह सच भी सच है कि उसकी टूटन और अवसाद से समाज बे-परवाह है। बावजूद इसके कि वह साबित कर चुका है कि उसके पेट में भी दर्द हो सकता है। बेटे के मर्जी की शादी की जिद पर कुंडली मिलान के लिए पंडितों और मंदिरों के चक्कर निकालना पड़ता है। बेटे की शादी की मिठाई ठीक उसी तरह वापस लौटाई जा सकती है जैसे आम-आदमी के साथ होता है और वह बहुत ही थके हुए शब्दों में कह सकता है – वे राजा, हम रंक। इतनी साफगोई के बाद भी कोई यह नहीं मानता। उनकी सफेद दाढ़ी समाज को विचलित कर देती है तो यह उनका दोष तो नहीं लेकिन ऐसा माना जाता है और कुछ दिन बाद यह दाढ़ी भी फैशन बन जाती है। ऐसा लगता है कि उन्हें दंगल में उतार दिया गया है और उत्तेजित करने वालों को कोई परवाह नहीं है। कोई नहीं सोचता कि राजेश खन्ना के समय से लेकर शाहरुख खान के समय से लगातार मुकाबला करने वाले इस व्यक्ति के पास कोई पारलौकिक ताकत नहीं है, आम आदमी है। इस भिड़ंत के लिए हमने कहीं उन्हें रेस का घोड़ा तो नहीं बना दिया है जिसे जीतना है बस जीतते रहना। इस रेस के मैदान में कभी ‘बूम’ के लिए दौड़ रहा है तो कभी ‘नि:शब्द’ और ‘चीनी कम’ के लिए। ‘शहंशाह’, ‘अकेला’ ‘जादूगर’ ‘तूफान’ ‘मृत्युदाता’ ‘रामगढ़ के शोले’ जैसे कई मैदान है, जहां दौड़ाया गया है उन्हें। उनके साथ रहने वाले खुमारी में रह सकते हैं। उन्हें चाहने वाले अपनी चाहत पर गर्व कर सकते हैं। उन्हें प्राप्त कर लेने वाले उत्सव मना सकते हैं लेकिन उनका सच इतना सरल नहीं है। हमारे अंदर दबे हुए जोश और हौसले को निकालने के लिए वह प्राणांतक चोट से उबरने के बाद सीधे फार्म हाउस पर जाते हैं और संवाद अदायगी का अभ्यास करते हैं तो क्या इसलिए कि उनकी फैन-लाइन से निकलकर राज ठाकरे नाम का एक व्यक्ति उन्हीं के खिलाफ मोर्चा खोल लेगा?
असली खुशी कौन जाने
इस बार जब उनके जन्मदिन पर मैं बहुत खुश हूं कि मैं उस व्यक्ति को बचपन से चाहता रहा जो आज महानायक है तो शायद यह मेरी खुशी हो सकती है। यह कहते हुए भी गर्व कर सकता हूं कि मेरे पत्रकार बनने के पीछे भी उनकी प्रेरणा है क्योंकि उन्होंने ‘मृत्युदाता’ फिल्म के दौरान अपने इंटरव्यू में कहा था कि ‘अगर भगवान ने अगले जन्म में इंसान के रूप में जन्म दिया तो पत्रकार बनना पसंद करेंगे।’ यह उनके लिए खुशी की बात हो, जरूरी नहीं। क्योंकि उनकी एक सुपर स्टार बनने की खुशी तो उसी समय काफूर हो चुकी थी जब उनके बेटे ने कहा था कि अगर आप मेरी स्कूल के वार्षिकोत्सव में आएंगे तो दूसरे बच्चों के पिता नहीं आएंगे। इसलिए आप स्कूल के वार्षिकोत्सव में नहीं आएं। बेटे को यह इसलिए कहना पड़ता है कि उनकी सुपरस्टारीय सुरक्षा के चलते दूसरे बच्चों के पिता अपमानित महसूस करते हैं। अपने बेटे को स्टेज पर परफॉर्म करते देखने की खुशी से भी वंचित रहने के पीछे एक मात्र अगर कोई वजह रही तो वह उनका सुपरस्टार बनना रहा, ऐसे में वे कहां खुश हैं इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। लोग उनकी खुशी को हर तरह के रोल करने और विज्ञापन करने में ढूंढ़ते हुए व्यंग्य करते हैं कि एक मसाले के विज्ञापन में काम करने की इच्छा जाने कब पूरी होगी लेकिन यह जानने की कोशिश कभी नहीं होती कि वास्तविक खुशी कहां है। आम आदमी के साथ ऐसा ही होता है।
थोपी जाती है प्रशस्तियां
मैंने अपनी जिंदगी में कोई नायक नहीं देखा है। आम आदमी बहुतेरे देखें हैं जो लड़ने की कोशिश जितनी शिद्दत से करते हैं लेकिन विकल्पों के साथ भी सहज रहते हैं। साहित्य में नायकों के गुण बताए गए हैं। हिंदी फिल्मों को देखते हुए नायक की एक तस्वीर बनाने की कोशिश की है लेकिन वे इन परिभाषाओं के अनुकूल नहीं है। उन्हें दुख होता है, तकलीफ होती है। अवसाद में आते हैं, टूट तक जाने की स्थिति तक जाते हैं, लौटते हैं लेकिन हीरो की तरह नहीं। आम आदमी की तरह। एक ऐसा आम आदमी जो अपने पिता की विरासत को संजोए रखने के लिए हर संभव प्रयास करता है क्योंकि वह जानता है पिता के नाम से ही परिवार चलेगा। आत्मकथा लेखन के लिए मिसाल बने अपने पिता की तरह वे भी आत्मकथा लिखना चाहते हों लेकिन उन्हें लगता है उनके पास आत्मकथा लिखने जैसा कुछ है ही नहीं। आत्मकथा खुद द्वारा लिखी गई होती है, प्रशस्तियां दूसरे गाते हैं। प्रशस्तियां थोपी हुई हो सकती है, अतिरेकपूर्ण हो सकती है लेकिन आत्मकथा में खुद के प्रति जवाबदेह होना पड़ता है। आत्म कथा आम-आदमी की बनती है। महिमामंडन अवतारों और नायकों का होता है।
मेरी कामना
मैं चाहता हूं कि उन्हें हीरोइज्म से मुक्ति मिले। इस जन्मदिन पर कामना करता हूं कि उन्हें एक आम-आदमी की पहचान मिले। आम-आदमी का प्रतिनिधि माना जाए और भले ही केंद्र सरकार किसी कार्यक्रम में उन्हें बतौर सेलिब्रिटी नहीं बुलाए, किसी को तकलीफ नहीं होनी चाहिए। मुझे लगता है शायद उन्हें इससे खुशी होगी, निश्चित रूप से मुझे ज्यादा। कब तक आखिर कब तक हम उन पर अपने पूर्वाग्रहों और महत्त्वाकांक्षाओं को लादे रखना चाहेंगे। क्या इस आमआदमी को समझने के लिए अब नाम लेने की जरूरत है?
- हरीश बी. शर्मा

7 comments:

  1. इस नए सुंदर से चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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  2. प्रिय हरीश भाई
    स्वागत है !
    आज चिट्ठाजगत की बदौलत आपके नये ब्लॉग के अवलोकन का अवसर मिला है ।
    सफल आमआदमी, असफल नायक आलेख अच्छा लगा ।
    आपकी कुछ अन्य पोस्ट्स भी देख कर प्रसन्नता हुई ।

    शुभकामनाओं सहित
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  3. हिन्दी ब्लॉग की दुनिया में आपका तहेदिल से स्वागत है।
    आपको और आपके परिवार को नवरात्र की शुभकामनाएं।

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  4. सार्थक लेखन के लिये आभार एवं "उम्र कैदी" की ओर से शुभकामनाएँ।

    जीवन तो इंसान ही नहीं, बल्कि सभी जीव भी जीते हैं, लेकिन इस मसाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, मनमानी और भेदभावपूर्ण व्यवस्था के चलते कुछ लोगों के लिये यह मानव जीवन अभिशाप बना जाता है। आज मैं यह सब झेल रहा हूँ। जब तक मुझ जैसे समस्याग्रस्त लोगों को समाज के लोग अपने हाल पर छोडकर आगे बढते जायेंगे, हालात लगातार बिगडते ही जायेंगे। बल्कि हालात बिगडते जाने का यही बडा कारण है। भगवान ना करे, लेकिन कल को आप या आपका कोई भी इस षडयन्त्र का शिकार हो सकता है!

    अत: यदि आपके पास केवल दो मिनट का समय हो तो कृपया मुझ उम्र-कैदी का निम्न ब्लॉग पढने का कष्ट करें हो सकता है कि आप के अनुभवों से मुझे कोई मार्ग या दिशा मिल जाये या मेरा जीवन संघर्ष आपके या अन्य किसी के काम आ जाये।

    आपका शुभचिन्तक
    "उम्र कैदी"

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  5. सार्थक लेखन के लिये आभार|

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  6. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपने बहुमूल्य विचार व्यक्त करने का कष्ट करें

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  7. harish ji aapaki samvednaaye bahoot gahari hain... aapake bhitar satah ke paar dekhane ki antardristi hai... dhadakate hue dil ko, kisi bi chiz ke rooh ko aap mahasoos kar sakate hain. amit ji ke prati aapake hardik uddagaar aur samvedanaye padate samay bachhan sahab se jayada aapaka vayaktitav mukhar hota raha... iss article me bachhan sahab se jayada aapaka akas ubharata raha.... baharal, log to big b ko bahar se dekate rahe hain aapane unahe bhitar se dekhane ki koshis ki hain... dil se likhe iss aarticle ke liye, natural abhiyakati ke liye badhai....
    amit swapnil
    http://swapnilamit.blogspot.com/

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