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Thursday, July 29, 2010

रिक्शे पर तिरंगा


वह कोई नई हवा के कारण बदनाम यूथ नहीं है जो 15
अगस्त, 26 जनवरी आते ही तिरंगा टी-शर्ट पर टांग लेता है।
वह राजनेता भी नहीं है जो चुनाव के दिनों में प्रचार के
लिए देशभक्ति के गीतों के कैसेट्स खरीदता है। उसके लिए हर
दिन 15 अगस्त है, हर दिन 26 जनवरी। वह रोजाना अपनी साइकिल-
रिक्शा पर तिरंगा लगाकर निकलता है। शाम को पूरे
स मान के साथ झंडा उतारकर घर में रख लेता है। जयपुर
की सड़क पर आम तौर पर दिख जाने वाले रामप्रसाद की दिनचर्या
का यह हिस्सा बन गया है। रोजाना सुबह रिक्शा पर
तिरंगा लगाना, आरती करना और मजदूरी पर निकल जाना,
उसकी दिनचर्या का हिस्सा है। जवाहरण लाल नेहरु मार्ग पर
इसे देखा जा सकता है।
वह दिहाड़ी मजदूर है जो रोजाना सौ रुपए कमाता है। किस्मत
अच्छी होती है तो दो सौ रुपए तक कमा लेता है। रामप्रसाद
पढ़ा-लिखा नहीं है। सवाल पूछने पर कहता है-अंगूठा टेक
हूं जी। वह नहीं जानता, इस तरह तिरंगा लेकर घूमने पर
कानून क्या कहता है। उसे तो यह पता है कि इस बार 15 अगस्त
को खादीमंदिर से एक नया झंडा खरीदना है। इस झंडे के लिए
350 रुपए की अतिरिक्त कमाई करनी है, जुटा है रामप्रसाद।

Monday, July 19, 2010

सांसें उधार मांग कर रस्में निभाई है

क्या खूब जीकर जिंदगी हमने बितायी है
सांसें उधार मांग कर रस्में निभाई है
रखना था हरेक पल का हिसाब हमें यारों
जिस में थे जागे रूठकर वे रातें गिनाई है
कुछ नाज़-नखरे, इंतज़ार, वादे ओ कुछ व्यवहार
दीवानगी, नादानियाँ प्यारे वफाई है
गर पूछ लोगे जिंदगी जीने का मुझ से राज़
कैसे कहूँगा फ़क़त कुछ यादें बचाई हैं
ज़ख्मों का है तकाजा, देना है एक ज़ख़्म
दोस्त कहते हो उसे, वो तो हरजाई है

Sunday, July 18, 2010

लिखा हुआ इतिहास बनता है लेकिन हकीकत बन जाए तो ...

एक खबर किस तरह नाटक के लिए थीम दे सकती है, इसका उदाहरण है मेरा नाटक हरारत। वर्ष 2003 में एक खबर फाइल की थी लव स्टोरी-2003: पति-पति और किन्नर। इस खबर में एक ऐसे किन्नर की कहानी थी जिसने एक पुरुष से शादी रचाई लेकिन जब उसे लगा कि पुरुष को पत्नी के रूप में एक स्त्री की जरूरत है तो उसने खुद पहल करके उसकी शादी की। बीकानेर रेलवे स्टेशन से शुरू हुई यह प्रेम कहानी बिहार के गांव तक पहुंची और इस तरह एक खबर ने रूप लिया। लेकिन किन्नर सीमा और उसके साथी सत्यनारायण से बातचीत में ऐसे कई भाव सामने आए जो खबर नहीं बन सकते थे। पत्रकार की सीमा जहां कसकती है, रचनाकार उसे संभाल लेता है। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। नाटक हरारत लिखा गया और जवाहर कला केंद्र, जयपुर की लघु नाटय लेखन प्रतियोगिता में प्रथम भी रहा। इस नाटक की मूल थीम रही कि क्या किसी किन्नर के मन में मां या बाप बनने की इच्छा नहीं जागती? जब ऐसा होता है तो क्या होता होगा। बस इसी आधार पर रचे गए नाटक में एक युवती के कुंवारी मां बनने की जिद और किन्नर के उसकी जिद को पूरा करने के लिए दिए गए साथ को दर्शाया गया। दुनियावी हकीकतों और नाटकीय पंच के बीच नाटक की मूल थीम को थामे रखना एक बड़ी चुनौती थी जिसके लिए अंत में एक दृश्य क्रियेट किया गया कि अंदर प्रसव वेदना से युवती तड़प रही है और बाहर किन्नर। इस वेदना को सह नहीं पाने के कारण युवती की मौत हो जाती है और इस तरह बच्चा किन्नर को मिल जाता है। पहला मंचन विपिन पुरोहित ने जयपुर में किया। इसके बाद हाल ही में शिमला के मनदीप मन्ना ने इस नाटक का मंचन दो-तीन बार किया। हालांकि शिमला का मंचन मैं देख नहीं पाया लेकिन जिस तरह के फोटोग्राफ्स मनदीप मन्ना ने भेजे, कहा जा सकता है कि उन्होंने मंचन में अपनी पूरी ताकत झोंक दी। वास्तव में नाटक मंच पर ही साकार होता है। एक श्रेष्ठ निर्देशक का हाथ मिल जाए तो पूर्णाकार हो जाता है।
हरारत नाटक को लेकर मेरे अनुभव बड़े ही रोचक रहे। पहले मंचन के बाद एक इटेलियन शोधार्थी इयान वुलफोर्ड जवाहर कला केंद्र के रंगायन से निकले और पूछते-पूछते मेरे पास आए। उन्होंने हिंदी में यह कहकर मुझे अचंभित ही नहीं बल्कि अभिभूत कर दिया कि इस नाटक को देखकर उनके आंसू निकल गए। फिर उन्होंने इस थीम को लेकर मुझसे पूरा साक्षात्कार भी किया।
सबसे रोचक संयोग तो यह रहा कि नाटक के मंचन के तीन साल बाद एक दिन अचानक से मेरा एक किन्नर कमला से साबका हुआ जिसने एक अनाथ बच्चे को पालने का बीड़ा उठाया जो उसे कचरे के ढेर पर बंद डब्बे में मिला। कमोबेश ऐसा ही मेरा क्लाईमैक्स था। इस संयोग के साक्षी रहने रंग निर्देशक सुधेश व्यास। बाद में यह भी खबर बनी कि कमला के हाथ में करमा की रेखा। कमला का कहना था कि किस्मत से यह लड़की मिली है, इसलिए इसका नाम भी करमा रखा है। कहा गया है कि लिखा हुआ इतिहास बन जाता है लेकिन जो कल्पना के आधार पर लिखा जाता है वह हकीकत में तब्दील हो जाता है तब कलम से डर लगने लगता है। मेरे साथ अमूमन ऐसा होता है लेकिन लिखने की चाहत कहती है - डरना मना है। 



''हरारत'' का शिमला में मंचन

Friday, July 16, 2010

बोल क्या चाहता है भाई...

मानसून के बेरुखे व्यवहार और पाल बाबा के चमत्कार या के सचिन, सायना और धोनी के बीच बढती अमीरी का भले ही कोई मतलब नहीं हो लेकिन बहस जारी है. बावजूद, यह प्रश्न यक्ष ने जैसा किया वैसा है कि आम आदमी किसे पसंद करता है ?  सिनेमा से लेकर विज्ञापन तक ये चिंता है क्योंकि ये आम आदमी ही मुआ सारी अर्थ व्यवस्था की धुरी बन गया है. रूपया नए कलेवर में आया तो आम आदमी जान ना चाहता है की इस से उसे क्या फायदा होगा. लेकिन ये कोई नहीं जानता.
यानी जो बात आम आदमी जान ना चाहता है वो कोई नहीं जानता. पाल बाबा भी नहीं. मानसून तो आम आदनी के लिए विपदाओं की वज़ह बन जता है, उसे इस से लेना क्या. हाँ, लेने के देने जरुर पड़ जाते हैं. पहले उसने अमीरों को और अमीर होते देखा फिर फिल्म वालों को और अब खिलाड़ियों को अमीर बनते देख रहा है. उसने सुना गरीबी हटेगी, बढ़ गई. उस ने माना '' खेलोगे-कूदोगे तो होगे खराब... '' यह भी गलत साबित हुआ.
वह लगातर गलत साबित हो रहा है और खुद को हर बार नए सिरे से स्थापित करने की कोशिश कर रहा है. दूसरी और उस पर शोध हो रहे हैं. जान ने की कोशिश हो रही है की वो क्या चाहता है. अगर ये पता चल जाये तो लोग अपने प्रोडक्ट लाँच करे, फ़िल्में बनाये, विज्ञापन तैयार करें.
पता नहीं गलत कौन हैं. आम आदमी या आम आदमी को बहुत कुछ मान ने वाले? कहीं न कहीं बड़ा सूराख है. जब तक इस का पता नहीं चल जाता ये आम आदमी इसी तरह चुइंगम बना रहेगा. सूना है इस देश में पाल बाबा की परम्परा में तोते, बैल और चिड़ियाँ रही है....
अन्य आलेख देखें  - www.harishbsharma.com

Tuesday, July 13, 2010

बधाई ''हंस'' टूल बना, अब आपकी बारी

बांसवाड़ा के भारत दोषी ने ''हंस'' में एक आलेख लिखकर विवाद के रास्ते चर्चित होने का तरीका अपनाया है. भाई दुलाराम सारण ने इस आलेख कि स्केनिग करवा के मेल भेजे है. इस तरह दोषी के अभियान को आगे बढाया है. मुझे नहीं लगता के ऐसा पहली बार है, इसलिए मुझे दोषी पर कोई दोषारोपण भी नहीं करना. मुझे लगता है उन्हें ऐसा करके सुकून मिलता है. आज के युग में लोग सुकून के लिए क्या-क्या नहीं करते. दोषी ने इसके लिए ''हंस ''  को टूल बना लिया तो उन्हें बधाई देना चाहूँगा.
स्वाभाविक रूप से''हंस ''  में छपे को आज भी गंभीरता से पढने वालों कि कमी नहीं है, राजस्थानियों को दर्द हुआ तो ये दर्द अपनों का दिया ही है. वो एक शेर भी तो है हमें तो '' अपनों ने लूटा, गैरों में कहाँ दम था, कश्ती वहां डूबी जहाँ पानी बहुत कम था'' लिहाजा इस बार राजस्थानी कि नाव चम्बल में हिचकोले खाती दिख रही है. आभार भारतजी का.
मुझे एक कविता बड़ी प्रभावित करती है...
ये अच्छा ही तो करते हैं
जो भाई-भाई होकर
आपस में लड़ते हैं
जरा सोचो
जब एक भाई
अपने दूसरे भाई को नहीं मार पायेगा
तो भार लाद बन्दूक का
वो दुश्मन के सामने
किस मुंह से जायेगा ?
इसलिए, अगर ये किसी के सामने सीना ताने रहने के लिए विरोध हो रहा है तो दोषी जी के इस अभियान पर क्या आपत्ति हो सकती है. खासतौर से आदिवासियों को?
कौन नहीं जानता राजस्थान में आदिवासी कहाँ रहते हैं?
राजस्थानी संस्कृति का आधार क्या है?
राजस्थानी भाषा कितनी समृद्ध है ?
लेकिन, इस देश में नागरिक अधिकारों के नाम पर कहा तो कुछ भी जा सकता है. कहे हुवे को सहन करने के नाम पर अगर किसी कि मेरे से दीगर राय हो तो जवाब हंस के माध्यम से देने का रास्ता साफ़ हो गया है, इसलिए बधाई!
साहित्यकार रवि पुरोहित कि बात ठीक है के ''हंस ''  ने जब ये मुद्दा उठा ही लिया है तो जवाब भी इसी माध्यम से दिया जाना चाहिए.
यक़ीनन, ''हंस ''  अगर टूल भारत दोषी के लिए बन सकता है तो जवाब प्रकाशित करने जितने काम का तो राजस्थानियों के लिए भी साबित हो सकता है.

Wednesday, July 7, 2010

तुम तो ना हो रेत

रेत के समंदर से निकलने को व्याकुल वो अग्निपिण्ड/
जो फिर रेत को ही तपाएगा/
...और रेत है कि... सहेगी सब/ कहेगी न कुछ/ ...
आखिरकार/ थक कर / वो खुद ही लौट आएगा/
हारा हुआ या के फिर... होने को आतप्त /
जाने कौन भरता है सूरज में इतनी गर्मी?
---एक सुबह जल्दी उठा तो धोरों से निकलते सूरज को देखा - शब्द निकले, सवाल बन गए...