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Monday, July 19, 2010

सांसें उधार मांग कर रस्में निभाई है

क्या खूब जीकर जिंदगी हमने बितायी है
सांसें उधार मांग कर रस्में निभाई है
रखना था हरेक पल का हिसाब हमें यारों
जिस में थे जागे रूठकर वे रातें गिनाई है
कुछ नाज़-नखरे, इंतज़ार, वादे ओ कुछ व्यवहार
दीवानगी, नादानियाँ प्यारे वफाई है
गर पूछ लोगे जिंदगी जीने का मुझ से राज़
कैसे कहूँगा फ़क़त कुछ यादें बचाई हैं
ज़ख्मों का है तकाजा, देना है एक ज़ख़्म
दोस्त कहते हो उसे, वो तो हरजाई है

Wednesday, July 7, 2010

तुम तो ना हो रेत

रेत के समंदर से निकलने को व्याकुल वो अग्निपिण्ड/
जो फिर रेत को ही तपाएगा/
...और रेत है कि... सहेगी सब/ कहेगी न कुछ/ ...
आखिरकार/ थक कर / वो खुद ही लौट आएगा/
हारा हुआ या के फिर... होने को आतप्त /
जाने कौन भरता है सूरज में इतनी गर्मी?
---एक सुबह जल्दी उठा तो धोरों से निकलते सूरज को देखा - शब्द निकले, सवाल बन गए...

Sunday, June 20, 2010

धक्कम-धक्की, खोसा-लूटी, मारपीट, चंडाळी में

तपे तावड़ो भोम पर, जावणों  जरुरी है
जीवां जित्ते भायला, सींवणों जरुरी है

चांदणे रा च्यार दिन, फेरूँ रात अंधारी है
मिळे तो लेवां मुकल़ावो, नीं जणे मजबूरी है

मुळके होठ, मनड़ो सैनाणी आँख्यां ताई देवे है
समझे कोई किस विध म्हाने, पीड़ा कित्ती डोरी है

आवण रा अनजाणा मारग, जाणे री ओळखी हाँ ठोड
महेल-माळीया, थाळी-बरतन, राखण री मज़बूरी है

धक्कम-धक्की, खोसा-लूटी, मारपीट, चंडाळी में
गेलो जोवे मानखे ने, मिनखपणों कमजोरी है

मिनखां में तो राम निकळयो, मिन्दर में ना दिख्यो राम
नेताजी रे कमरे माय, रामसभा सजियोड़ी है

महे बोल्यो हे राम ! ओ काई ? दीन बंधु तू तो भगवान
राम केयो तू  साच केवे पण रोटी अठे सोरी है

Thursday, June 17, 2010

नास्तिक की दलीलों में सच लग था

मन बिना की मस्तियाँ आँखों ने बांची
सादगी से सार ली, जो बातें थीं साची
प्राण में दम था क्या जो छोड़े पिंजर
छुट गया घर-बार, मेहँदी हाथ राची
नास्तिक की दलीलों में सच लग था
क्या करें मूरत अभी थी बहुत काची
उड़ा छप्पर, सहारे को शब्द सहचर
अब थी भाभी या किसी की वो चाची
कहने को तेरी पनाहें नाम मेरे
तुने तो लकीरें पहले ही खांची

Monday, June 14, 2010

फिर मैं फिर से फिरकर आता

चूके कहाँ, कहाँ हारे हम 
हम ने कब तोड़ी सीमाएँ 
किस का वादा कोई इरादा 
बना न पाए, निभा न पाए 
बंधन थे जकड़े- अधखुले 
ना स्वतंत्र, आधीन नहीं था 
बोझिल नहीं न सीना ताने 
कदम-कदम पर थे मयखाने 
मेरी अपनी जीवन ज्योति 
नई दिशा से आलोकित है 
मेरा मन जलते अंगारे 
हर सपने को सत्य पुकारे 
झरते आवेगों से बहकर 
झीलों से, नावों से सहकर 
फिर मैं फिर से फिरकर आता
आशाओं के दीप जलाने
परिणामों के साज़ बजाने

Sunday, June 13, 2010

क्या है मंज़र देवता खामोश क्यूँ है.

नीड़ के तिनकों की जलती एक धूनी 
तापते-तपते सिकती रोटियां और 
बिलखती मादा जो सहती भ्रूण हत्या
क्या है मंज़र देवता खामोश क्यूँ है.

लीलती हैवानियत रहनुमाई को 
बिखरती बिंदी की अस्मत बीच रस्ते
बीनते हर एक चिंदी को खबरची
खबर में स्याही सहारे खून रिसता
झुर्रियों का तिलिस्म क्यूँ बिखरा पड़ा है
देख ये बचपन खड़ा मायूस क्यूँ है 
क्या है मंज़र देवता खामोश क्यूँ है. 

मुस्कराहट चीख में तब्दील होती
रागिनी के स्वर में तांडव क्यूँ धधकता 
क्यूँ है वीरानी किसी मंदिर में छाई 
क्यूँ अजानों का है स्वर धीमा है लगता 
किस के डर से शिकन औ' अफ़सोस क्यूँ है 
क्या है मंज़र देवता खामोश क्यूँ है. 

जो भी उनके घर जनमते राज़ करते 
दिग्गजों के जोर तख्ते ताज बनते 
सरफरोशी की तमन्ना और तमाशे
अस्मिता आदर्श ले दर-दर भटकता 
मलंग बैठा दूर कोई गीत गाता
गीत के शब्दों में ये उपहास क्यूँ है 
क्या है मंज़र देवता खामोश क्यूँ है. 

Friday, June 11, 2010

प्रवाह - लोग कहे जादू-टोना है

पोंछ लो आंसू फिर रोना है,
जागो तुमको फिर सोना है
बिलखा है बचपन जो जाना,
इसे अँधेरा अब ढोना है
कौतुक क्यूँ करते हो कौवों,
तुम्ही को खाना जो होना है
क्यूँ रोते नहीं राज़ बड़ा है,
क्या पाया था, जो खोना है
पहले था घर फ़क़त बाप का,
अब बिखरा कोना-कोना है
रहिमन के धागे की गांठें,
सुलझे जब चांदी-सोना है
खुल्ला खेल फर्रुखाबादी,
लोग कहे जादू-टोना है
* आप चाहें तो इसे छोटे बहर की ग़ज़ल के तौर पर ले सकते हैं. मैं ग़ज़ल के मामले में कोरा हूँ. इसे ग़ज़ल नहीं मन जाये तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी. 

Saturday, June 5, 2010

राजस्थानी कविता : थमपंछीड़ा

अरे
थम पंछीड़ा
ढबज्या
देख
सूरज रो ताप बाळ देवैलो।
बेळू सूं ले सीख
कै उड बठै तांई
जित्ती है थारी जाण
जित्ती है थारी पिछाण

राजस्थानी कविता : आमआदमी

जिको नीं जाणै
मांयली बातां
गांव री बेळू ने सोनो
अर पोखरां में चांदी बतावे।
सन् सैंताळिस रै बाद हुया
सुधार गिणावै
नूंवै सूरज री अडीक राखै
अर अंधारो ढोवै।
छापै में छपी खबरां
पढ़ै अर चमकै
बो आम आदमी है।

राजस्थानी कविता : हिचकी

म्हारी जिनगाणी रे रोजनामचे में
थारी ओळूं
हिचकी बण'र उभरे
अर बिसरा देवै सै कीं
म्हारो आगो-पाछो
ऊंच-नीच
हां, सैं कीं
चावूं, नीं थमे हिचकी
भलां ही हिचकतो रूं सारी उमर
अर थारै नांव री हिचकी ने
देंवतो रूं दूजा-दूजा नांव
दाब्या राखूं म्हारो रोजनामचो
जाणूं हूं
थारै अर म्हारे बिचाळै री आ कड़ी
जे टूटगी तो फेर कांई रैवेला बाद-बाकी
इण साचने सोधण बाद
म्हें हूं म्हारे दुख-सुख रो जिम्मेवार
पण बता तो सरी
थूं कियां परोटे है म्हारे नांव री हिचकी

राजस्थानी कविता : सिरजण पेटे

थारै खुरदारा शबदां ने
परोटतां अर
थारै दिखायोड़ै
दरसावां पर
नाड़ हिलांवता ई'जे
म्हारा जलमदिन निकळना हा
फैरुं क्यूं दीनी
म्हने रचण री ऊरमा
सामीं मूंढ़े म्हांसू बात नीं करण्या
थारै परपूठ एक ओळभो है
कीं तो म्हारे रचण अर सिरजण पेटे ई
'कोटो' रखतौ।

राजस्थानी कविता : खूंट

म्हारी खूंट री परली ठौड़ रो दरसाव
तिस ने बधावै
अर म्हारै पांति रे तावड़े ने
घणौ गैरो करे।
थारी छियां
म्हारी कळबळाट बधावण सारु
कम नीं पड़े।
थनै पाणै री बधती इंच्छा
देखतां-देखतां तड़प बण जावै
जिकै में रैवे थारै नांव रो ताप, ओ ताप
तोड़ देवै है कईं दफै हदां - थारी अर म्हारी खूंट बीचली

राजस्थानी कविता : चाळणी

रोजीना थारै शबदां बिंध्योड़ी चालणी
म्हारे मन में बण जावै
थूं जाणनो चावै कम अर बतावणो चावै घणौ।
म्हारे करियोड़े कारज में
थूं खोट जोवै
अर कसरां बांचै
म्हे जाणूं हूं, पण चावूं
थूं थारी सरधा सारु इयां करतो रे
चायै म्हारे काळजे में चाळनियां बधती जावै
काल थारा कांकरा अर रेतो
ई चालणी सूं ई छानणो है

राजस्थानी कविता : सुपारी

सरोते रे बीच फंसी सुपारी
बोले कटक
अर दो फाड़ हुय जावै
जित्ता कटक बोलै
बित्ता अंस बणावै
लोग केवै सुपारी काटी नीं जावै
तद ताणी
मजो नीं आवै-खावण रो
आखी सुपारी तो पूजण रे काम आवै
पूजायां बाद
कुंकु-मोळी सागै पधरा दी जावै
स्वाद समझणिया सरोता राखै
बोलावे कटक
अर थूक सागै, जीभ माथै
रपटावंता रेवै सुपारी ने
सुपारी बापड़ी या सुभागी
जे जूण में आई है-लकड़ां री
अर सुभाव है-स्वाद देवणों
तो ओळभो अर शबासी कैने

जिंदगी

जीवन को
धूप-छांव का सहकार कहो
या दाना चुगती चिड़ियों के साथ
नादां का व्यवहार
पागल के हाथ पड़ी माचिस-सी होती है जिंदगी
दीवाली की लापसी, ईद की सिवइयां
क्रिसमस ट्री पर सजे चॉकलेट्स से
बहुत मीठी होती है जिंदगी
जिसे जीना पड़ता है
लेकिन सुधी पाठक ज्यादा माथा नहीं दुखाते
किताब बंद करते होते हैं
जब समाप्त लिखा आता है।
पेपरवेट
फड़फड़ाते कागजों के हाथों
'आखा' देकर, पवित्रता की पैरवी करती
दंतकथाएं सुनाती बुढ़ियाएं
कितनी ही तीज-चौथ करवा चुकी है
लेकिन अब ये पेपरवेट कम होने लगे हैं
उड़ने लगे हैं कथा के कागज
चौड़े आने लगा है चंदामामा से धर्मेला
तीज-चौथ आज भी आती है
भूखे पेट रहकर, आखा हाथ मे रखकर
बची-खुची बुढ़ियाएं तलाश, कथाएं फिर सुनी जाती है
फिर होती है ऐसे पतियों पर बहस
घंटों चलती है - उस जमाने पर टीका-टिप्पणी
सीता और द्रोपदी के दुख-सुख पर चटखारे
चलनी की आड़ से देखे चांद की
खूबसूरती भी शेयर की जाती है
'हम ही क्यों रखें व्रत'
ऐसी सुगबुगाहट भी होती है
कुछ ऐसी बातों पर ध्यान नहीं देते
कहते हैं-बाकी है अभी बहुत कुछ
कुछ कहते हैं-खेल ही अब शुरू होगा बराबरी का
जब कुछ भी नहीं रहेगा चोरी-छाने

शहर मेरा

पहला
हॉर्न होते हैं संक्रामक
बजते ही जाते हैं
मेरा शहर, जहां नहीं है वन-वे
जाने क्यों फिर भी
लोग नहीं टकराते हैं
तुम कह सकते हो सहिष्णु हैं
टकराकर भी कहते हैं जाने भी दो यार
या के इतने हो गए हैं ढीठ
जानते हैं, होना क्या है
ये शहर ऐसे ही चलेगा
किस-किस से करेंगे तकरार

दूजा
मुझे लगता है
सुकून-सिर्फ आरओबी पर मिलेगा
सबसे ऊंची जगह
दिखती है सिर्फ दौड़ती गाड़ियां
मैं रुकता हूं
रात कुछ बाकी
कुछ कोल्ड... कुछ ड्रिंक्स
सबकुछ अपने मन जैसा
अचानक, कोई पुकारता है
हरीश!
मैं झल्लाता हूं....
यार, ये शहर इतना छोटा क्यों है

तीजा
उन्हें चाहिए कान्वेंट की कविता
और मैं मारजा की दी ईंट को
हाथ पर रखे
घोटता पाटी
जूझता हूं कविता से
कवायद कविता की नहीं
चाहत, अंतर पाटने की है
इस कोर्ट मैरिज में
मैं कहीं सुन ही नहीं पाता
अंतरपट दो खोल
* यह कविता बीकानेर के सन्दर्भ में लिखी गई है.

क्योंकि आदमी हैं हम

एक
मैं सरयू तट पर नाव लेकर
आरण्यक में एक से दूसरी शाख पर झूलते
लंका में अस्तित्त्वबोध के शब्द को संजोए
अपनी कुटिया में रामनाम मांडे
अलख जगाए-धूनी रमाए
प्रतीक्षा करता हूं-प्रभु की
और निष्ठुर प्रभु आते ही नहीं।
दो.
चाहता हूं प्रभु
फिर तुम्हें एक लंबा वनवास मिले
अपने परिवार से होकर अलग
तुम वन-वन भटको
रात-रात भर सीते-सीते करते जागो
फिर जब सीता मिले
उसको भी त्यागो
तीन
हे राम!
पुरुषोत्तम की यह उपाधि
तुम्हे यूं ही नहीं दी गई है
मर्यादा के, साक्षात सत्य के अवतार थे तुम तो
तभी तो तुम पुरुषोत्तम कहलाए।
विश्वसुंदरी की तरह चलवैजयंती भी नहीं है यह उपाधि
जो हर साल किसी और को मिल जाए
क्या तुम्हें इतना भी पता नहीं है!
चार
प्रभु!
इतने स्वार्थी मत बनो
मानवता के नाते आओ
हे अवतार! हे तारणहार!
हमें इन अमानुषों
समाजकंटकों से बचाओ
कब तक हम
इन दानवों से लड़ सकते हैं
आखिर तो बाल-बच्चेदार हैं
परिवार-घरबार, भरापूरा संसार है
कैसे बिखरती देख सकती हैं
मेरी इंसानी आंखें यह सब
पांच
वादा रहा
आपका संघर्ष व्यर्थ नहीं जाने दूंगा
मंदिर बनवाऊंगा, मूर्तियां लगवाऊंगा
मानवता के प्रति आपकी भूमिका के पेटे
एक वाल्मीकी, हाथों-हाथ अपॉइंट करवा दूंगा
वक्त-जरूरत
तुलसीदास जैसों की सेवाएं भी ली जाएंगी
आप आइये जरूर खूब महिमा गाई जाएंगी।

बुलबुले

काले झंडे, मुर्दाबाद की तख्तियां
कसकर बांधी मुट्ठियां
अतिरेक में इनकलाबी
लगता है दूर नहीं आजादी
असली आजादी
फिर सब सामान्य
नियंत्रण में लगता है माहौल
मिल जाते हैं अधिकार
मिल जाती है आजादी
हर बार मिलती है यह आजादी
असली आजादी
फिर एक दिन तख्तियां निकल आती हैं
मुट्ठियां भिंच जाती हैं
आजादी मांगी जाती है
पूछलें-पिछली का क्या हुआ
जवाब होगा-खा-पीकर खत्म की

न बाहर, न बाद

ढाणियों पर राज को
बांटने समाज को
चलती है तलवारें
रिश्तों की गर्मी पिघल जाती है रोज
खुलते हैं अपने-अपने क्षेत्र
कह दें कुरुक्षेत्र
रचती है महाभारत
पीढ़ियां पढ़ाने के लिए
घड़ दिया जाता है इतिहास
द्रोपदी की लाज, पांडवों का वनवास
कृष्ण का अघोषित रास
आज भी बिकता है।
कृष्ण की गवाही पर पांडव बरी
शकुनि की कोशिशें नाकाम
दुर्योधन बदनाम
त्रियाचरित्र के क्लाईमैक्स के साथ
खत्म होती है महाभारत
सत्यवती से द्रोपदी तक सबूत ही सबूत
महाभारत खत्म होती है
भीष्म को मिलता है
लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड
शिखंडी यहां भी नहीं होता है
अन्न के कांसेप्ट पर झुक जाते हैं सबके शीश
फिर कौन पूछे भीष्म से महाभारत का कारण
आज भी छाती ठोककर कहता है वेदव्यास
न जयसंहिता से बाहर, न है कुछ भी इसके बाद
दोहराई जाती है द्रोपदी
सम्मान पाते हैं देवव्रत साहब।

कई बार

मुझे कई बार उतरना पड़ा है
सैलून की सीट से
थर्ड की टिकट-खिड़की पर
नंबर आते-आते
कई बार धकेला गया हूं मैं
पीड़ा हर बार हुई
मलहम लगाकर छुट्टी की
कभी कुरेदा ही नहीं
नासूर बनने नहीं दिए ऐसे घाव
क्योंकि माना गया जिसे नियति
उससे उलाहना क्या
फिर ऐसे लोगों की
स्टोरी भी तो नहीं बनती