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Sunday, June 20, 2010

धक्कम-धक्की, खोसा-लूटी, मारपीट, चंडाळी में

तपे तावड़ो भोम पर, जावणों  जरुरी है
जीवां जित्ते भायला, सींवणों जरुरी है

चांदणे रा च्यार दिन, फेरूँ रात अंधारी है
मिळे तो लेवां मुकल़ावो, नीं जणे मजबूरी है

मुळके होठ, मनड़ो सैनाणी आँख्यां ताई देवे है
समझे कोई किस विध म्हाने, पीड़ा कित्ती डोरी है

आवण रा अनजाणा मारग, जाणे री ओळखी हाँ ठोड
महेल-माळीया, थाळी-बरतन, राखण री मज़बूरी है

धक्कम-धक्की, खोसा-लूटी, मारपीट, चंडाळी में
गेलो जोवे मानखे ने, मिनखपणों कमजोरी है

मिनखां में तो राम निकळयो, मिन्दर में ना दिख्यो राम
नेताजी रे कमरे माय, रामसभा सजियोड़ी है

महे बोल्यो हे राम ! ओ काई ? दीन बंधु तू तो भगवान
राम केयो तू  साच केवे पण रोटी अठे सोरी है

Saturday, June 19, 2010

मुक्तक : खुले-खिले कुछ अपने में ही

अनजानों से शहर भरा
अपना कोई कब होता है
लुट जाते हैं लूटने वाले
लूटे जो सिकन्दर होता है

ज़र्द चेहरा, सर्द सांसें
दर्द पोरों में समाया
दिन दीवाने
ठंडा सूरज
चांदनी पर प्रेत छाया

जो और भरोगे बह जायेगा
सूखेगी रवानी पानी में
कुछ होश करो देने वालों
भर जायेगा पैमाना है

आज बरसा है कोई
ठंडी हवा ने ये बताया
आज भीगा है कोई
सौंधी सी खुशबू ने बताया

Thursday, June 17, 2010

नास्तिक की दलीलों में सच लग था

मन बिना की मस्तियाँ आँखों ने बांची
सादगी से सार ली, जो बातें थीं साची
प्राण में दम था क्या जो छोड़े पिंजर
छुट गया घर-बार, मेहँदी हाथ राची
नास्तिक की दलीलों में सच लग था
क्या करें मूरत अभी थी बहुत काची
उड़ा छप्पर, सहारे को शब्द सहचर
अब थी भाभी या किसी की वो चाची
कहने को तेरी पनाहें नाम मेरे
तुने तो लकीरें पहले ही खांची

नव सृजन का रिक्ग्नाईजेशन बनाम एक पर एक फ्री

जयपुर के बोधि प्रकाशन से बहुत ही कम कीमत पर साहित्यिक कृतियाँ उपलब्ध करने कि संकल्पना इन दिनों चर्चा में है. पहले पड़ाव में दस कृतियां सौ रुपये में उपलब्ध करने के बाद दूसरा चरण राजस्थानी साहित्य को समर्पित करने का विचार सराहनीय है. ऐसा होगा तो दस राजस्थानी कृतियां सस्ती कीमत पर पाठकों को उपलब्ध होगी. चर्चा यह है कि पैमाना क्या रहेगा...
पहले चरण में शामिल विधाओं में कविताओं कि बहुतायत उल्लेखनीय है. इतना बड़ा रिस्क उठाने वाला प्रकाशक जरूर इस सवाल से जूझा ही होगा. पूरे मंथन  के बाद ही सर्वाधिक कृतियां काव्य कि रही होगी, अकारण ही नाटक एक भी नहीं रहा होगा. लगभग सभी विधाओं का प्रतिनिधित्व  प्रकाशकीय इमानदारी का परिचायक है. रही बात लेखकों के चयन कि तो ये सवाल तो कभी भी उठाये जा सकते हैं. कोई तो दस होंगे ही.
इस बीच अगली बार राजस्थानी रचनाकारों में शामिल होने के लिए कवायद भी शुरू हो गई है. मुझे याद आता है कि बोधि प्रकाशन के इस प्रयास पर पैसे लेकर किताबें छापने का अंदेशा भी व्यक्त किया गया था. बोधि प्रकाशन ने ऐसा किया होगा, नहीं जनता लेकिन दूसरे कईप्रकाशन  ऐसा करते हैं, यह बहुत ज्यादा छिपा हुआ नहीं है. मेरा तो इतना भर मानना है कि पैसा लेकर एक हज़ार प्रतियाँ भी नहीं छापने वाले प्रकाशकों से यह प्रयास बेहतर है जिसका लक्ष्य तीस हज़ार सेट छापने का है. ऐसा होता है तो पैनल में शामिल रचनाकार कि बल्ले-बल्ले.
सुना है कि घाटे-नफे के गणित में नहीं पड़ प्रकाशक ने सिर्फ सस्ता साहित्य प्रकाशित करने का संकल्प लिया है. यह संकल्प तब तक घाटे का माना जायेगा जब तक तीस हज़ार सेट नहीं बिक जाते. छह महीने का समय है. शुभचिंतकों का सहयोग और अपनी तरह का पहला प्रयास. ऐसे में उत्साह और समर्थन लाजिमी है.
बार-बार जो सवाल साल रहा है वो यह कि क्या साहित्यिक कृतियों का कथित रूप से महंगा होना ही वह वजह है जो पाठकों को दूर कर रही है.
सवाल तो यह भी है कि क्या वास्तव में लोग  किताबें खरीदकर नहीं पढ़ते ?
या ये संकट भी सुनियोजित रूप से रचा गया है?
याद रहे, पाठक खत्म होना और पढने वाले खतम होना दो अलग-अलग तरह कि बातें है. 
इन बातों का ताल्लुक भी अलग-अलग तरह के लोगों से है.
जिस तरह नेट के माध्यम से देश-दुनिया के लेखक-रचनाएँ एक क्लिक पर उपलब्ध है और लोग लगातार साइट विजिट करते हुवे अपनी पसंद का पढ़ रहे हैं, तृप्त हो रहे हैं. मुझे ये पढने वालों कि समस्या नहीं लगती.
मेरी नज़र में  सस्ता साहित्य उपलब्ध करने के इस तरीके को बाजारवाद कि प्रेरणा माना जाना चाहिए. जैसे बाज़ार उपभोक्ताओं कि रूचि को ध्यान में रखते हुवे एक पर एक फ्री जैसे ऑफ़र दिए जा रहे हैं, वैसा ही यहाँ भी हुआ. कुछ नामचीनों को साथ रखते हुवे सेट तेयार किया गया है.
जरा सोचिये, सौ रूपये में आप को दस में से ऐसे कितने लेखकों को पढने के लिए मजबूर किया जा सकता है जिन में आप को रूचि ही नहीं. जाहिर है, रूचि होती तो आप सेट का इंतज़ार थोड़े ही करते. क्या ऐसा करने से कोई लिखने वाला लेखक के रूप में स्थापित हो सकेगा?
क्या वास्तव में एक के बदले एक मुफ्त पाने वाला ग्राहक भविष्य के लिए आपके प्रोडक्ट का अभ्यस्त हो जायेगा?
यानी अगली बार किसी भी पुस्तक मेले में उस लेखक कि कृति कि मांग करेगा?
ऐसा होना चाहिए. ऐसा हो तो कोई बुराई भी नहीं. नया तरीका है, कहे का ऐतराज़...मज़ा आ जायेगा. मुझे भी फिर अगले सेट के लेखकीय पैनल में शामिल होने का रास्ता खोजना पड़ेगा. नव सृजन के रिक्ग्नाईजेशन का यह तरीका भले ही बज्ज़रवाद से प्रेरित हो लेकिन साहित्य में इसे नवाचार के रूप में ही लेना चाहिए.

Tuesday, June 15, 2010

जिसे मेरा कहा जा रहा है वो है क्या मेरा

सृजन के नाम पर कारखाने लगाने वालों की भी कमी नहीं है तो यह कहने वाले भी आसानी से मिल जाते हैं कि उन के वश में लिखा जाना है ही नहीं. अनुभूतियाँ, संवेग और प्रतिक्रिया नितांत एकांत कि पैदाइश होती है और इसे सृजन का नाम देकर हम इसे साधारणीकरण से दूर कही विशिष्ट कही जाने वाली गलियों में भटकने के लिए मजबूर कर देते हैं.यही वो जगह है जहाँ सृजन को समझाने में मैं खुद को असफल पाता हूँ, जो मिलता है उस से असहमति जताता हूँ.
मेरा सरोकार भीड़ से है लेकिन मेरे रचाव के साथ ऐसा नहीं है. मैंने अपने शुभचिंतकों के आग्रह पर सौ से ज्यादा अभिनन्दन पत्र लिखे होंगे. इन में से कुछ ऐसे भी रहे जिन्हें मैं जनता तक नहीं था लेकिन ऐसा कर पाया क्यूंकि करना था. कविता, कहानी या नाटक को लेकर ऐसे दबाव में कभी नहीं रहा. हालाँकि, रचनाकर्म कि निरन्तरता बनी रही. यह मेरा खुद से वादा था.
यह सच है कि मैं अपने विषय सीधे समाज से उठता हूँ लेकिन वापसी उसी तर्ज़ पर नहीं कर पता. कुछ ऐसा हो ही जाता है जो मेरा नहीं होता, सांचे में पिला या ढांचे में ढला नहीं होता. यह जो लिखा जाता है वो कई बार तो न केवल  मेरी सीमाओं से बाहर होता है बल्कि कई बार तो ऐसा भी हुआ है के पूर्वनिर्धारित भी नहीं हुआ है. मैं मानता हूँ कि किसी कारखाने कि तरह नित नए विषय रोजाना आते-जाते रहते हैं लेकिन यह भी सच है कि किसी भी स्वरूप को लेकर मैं तरतीबवार कभी नहीं रहा या रह नहीं पाया. तो यह तय हुआ कि मेरे वश में भी लिखा जाना नहीं है. इस बिंदु पर आकर कम से कम मैं फैसला नहीं कर पाता.
फिर यह भी कि क्या ये सवाल जरुरी है.
दुनिया जिसे मेरा रचा मानती है उस से असहमति जता कर बैठे-ठाले क्यूँ अपनी कमजोरी व्यक्त करूँ. लेकिन सच तो यही है कि जिन के बूते मैं खुद को रचनाकार ही नहीं रचयिता जैसे विशेषण चाहता हूँ, उसका अधिकारी हूँ भी या किसी के हक़ को मार रहा हूँ. हो तो यह भी सकता है कि किसी का कहा रिपीट कर रहा हूँ. बहुसंख्यक लोगों ने चूँकि उसे नहीं सुना इसे मुझे रचयिता मान ने में उन्हें कोई ऐतराज़ नहीं लेकिन मुझे...
शक तो यह भी है कि मैं किसी का टूल बना बोल-लिख रहा हूँ. फिर मेरा क्या. पेन, कागज. ब्लॉग, शब्द, अनुभूतियाँ, संवेग, प्रतिक्रिया आदि जिसे मैं अपना मानता हूँ. क्या वास्तव में मेरा है.

Monday, June 14, 2010

फिर मैं फिर से फिरकर आता

चूके कहाँ, कहाँ हारे हम 
हम ने कब तोड़ी सीमाएँ 
किस का वादा कोई इरादा 
बना न पाए, निभा न पाए 
बंधन थे जकड़े- अधखुले 
ना स्वतंत्र, आधीन नहीं था 
बोझिल नहीं न सीना ताने 
कदम-कदम पर थे मयखाने 
मेरी अपनी जीवन ज्योति 
नई दिशा से आलोकित है 
मेरा मन जलते अंगारे 
हर सपने को सत्य पुकारे 
झरते आवेगों से बहकर 
झीलों से, नावों से सहकर 
फिर मैं फिर से फिरकर आता
आशाओं के दीप जलाने
परिणामों के साज़ बजाने

Sunday, June 13, 2010

क्या है मंज़र देवता खामोश क्यूँ है.

नीड़ के तिनकों की जलती एक धूनी 
तापते-तपते सिकती रोटियां और 
बिलखती मादा जो सहती भ्रूण हत्या
क्या है मंज़र देवता खामोश क्यूँ है.

लीलती हैवानियत रहनुमाई को 
बिखरती बिंदी की अस्मत बीच रस्ते
बीनते हर एक चिंदी को खबरची
खबर में स्याही सहारे खून रिसता
झुर्रियों का तिलिस्म क्यूँ बिखरा पड़ा है
देख ये बचपन खड़ा मायूस क्यूँ है 
क्या है मंज़र देवता खामोश क्यूँ है. 

मुस्कराहट चीख में तब्दील होती
रागिनी के स्वर में तांडव क्यूँ धधकता 
क्यूँ है वीरानी किसी मंदिर में छाई 
क्यूँ अजानों का है स्वर धीमा है लगता 
किस के डर से शिकन औ' अफ़सोस क्यूँ है 
क्या है मंज़र देवता खामोश क्यूँ है. 

जो भी उनके घर जनमते राज़ करते 
दिग्गजों के जोर तख्ते ताज बनते 
सरफरोशी की तमन्ना और तमाशे
अस्मिता आदर्श ले दर-दर भटकता 
मलंग बैठा दूर कोई गीत गाता
गीत के शब्दों में ये उपहास क्यूँ है 
क्या है मंज़र देवता खामोश क्यूँ है. 

Saturday, June 12, 2010

हमारी पीढ़ी में जगे पढने कि ललक

वरिष्ठ कथाकार मालचंद तिवारी का एक एसएमएस मिला है. उनका कहना है कि वर्ष २०१० हिंदी साहित्य के तीन दिग्गज कवियों का जन्म शताब्दी वर्ष है. ये तीन कवि हैं - शमशेर, अज्ञेय और नागार्जुन.
भारतीय साहित्य में इनका नाम सम्मान से लिया जाता है. तिवारीजी का सवाल है कि क्या हमें कुछ करना नहीं चाहिए ?
यक़ीनन, यह जरुरी है. आज कि पीढ़ी के लिए तो बहुत ज्यादा. पीढ़ी जिसमे मैं भी शामिल हूँ. किसी आयोजन कि बजाय यह भी हो सकता है कि इस साल के बचे हुवे महीनों को इन साहित्यकारों के नाम समर्पित कर दें. संकल्प करें कि इस वर्ष कम से कम एक-एक कृति इन साहित्यकारों कि पढेंगे.
जरुरत इस बात कि है कि हमारी पीढ़ी में पढने कि ललक पैदा हो. जो पढ़ रहें हैं उन्हें चाहिए कि अपना पढ़ा बांटें. इस से प्रेरणा मिलेगी. अंतरजाल कि दुनिया में अब कुछ भी असंभव नहीं है.
जिन खोजा तिन पाईयां, गहरे पानी पैठ.

Friday, June 11, 2010

अग्निपथ-अग्निपथ-अग्निपथ...



वृक्ष हों भले खड़े, हों घने, हों बड़े
एक पत्र छांव भी मांग मत
कर शपथ-कर शपथ
अग्निपथ-अग्निपथ-अग्निपथ...

श्री हरिवंशराय बच्चन की ये कविता प्रेरणा देने वाली है. खासतौर से आज के दौर में जब लोग सफलता की सीढियां चढ़ने के लिए गोडफादर की अनिवार्यता का प्रतिपादन करते हैं, अवसाद को जन्म देते हैं. यह कविता साथ देती है, दूर तलक...
मेरा यह भी मानना है की अमिताभ बच्चन को जन सामान्य का नायक बनने में फिल्मों से भी बड़ी भूमिका अगर किसी ने निभाई है तो वह श्री हरिवंश राय बच्चन हैं. उन्होंने अपनी आत्मकथा में ही नहीं बल्कि सृजन के दूसरे माध्यम में भी अवचेतन रूप से अमिताभ बच्चन को शामिल किया. भले ही ये सायास नहीं हो लेकिन था तो सही. लोग गोडफादर से ऐसी ही उम्मीद करते हैं.

प्रवाह - लोग कहे जादू-टोना है

पोंछ लो आंसू फिर रोना है,
जागो तुमको फिर सोना है
बिलखा है बचपन जो जाना,
इसे अँधेरा अब ढोना है
कौतुक क्यूँ करते हो कौवों,
तुम्ही को खाना जो होना है
क्यूँ रोते नहीं राज़ बड़ा है,
क्या पाया था, जो खोना है
पहले था घर फ़क़त बाप का,
अब बिखरा कोना-कोना है
रहिमन के धागे की गांठें,
सुलझे जब चांदी-सोना है
खुल्ला खेल फर्रुखाबादी,
लोग कहे जादू-टोना है
* आप चाहें तो इसे छोटे बहर की ग़ज़ल के तौर पर ले सकते हैं. मैं ग़ज़ल के मामले में कोरा हूँ. इसे ग़ज़ल नहीं मन जाये तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी. 

Thursday, June 10, 2010

दखल - रचनाकर्म में गुलामी या गुलाम रचनाकर्म

रचते समय वाद से अभिप्रेरित होने, संप्रदाय की दीक्षा लेने और पंथों के अनुयायी बनने की कितनी जरूरत होती है, यह भले ही अनुभव नहीं हुआ हो लेकिन पिछले कई दशकों से यह साबित हो चुका है कि भले ही रचना लेखन के दौरान वाद और संप्रदाय की जरूरत नहीं हो लेकिन रचनाकार के लिए इन सबसे से प्रेरित होना जरूरी माना जाता है। गोया कि उसके लिए एक खूंटा जरूरी है। फिर इस तरह के खूंटे से बंधे सभी लोगों का एक संघ भी जरूरी है। लिखना शुरू करने से पहले या कुछ बाद में अगर इस तरह के एक खूंटे से नहीं बंधे तो फिर लिखा गया ही नहीं बल्कि लिखा जाने वाला भी खारिज किया जा सकता है।
मेरा साफ मानना है कि लेखन के लिए वाद, संप्रदाय या पंथ की जरूरत नहीं है। इससे भी कड़वा कहूं तो मैं नहीं मानता कि लेखन के पेटे किसी भी वाद, संप्रदाय या पंथ का गुलाम बनूं। जिस दिन मैं अपने रचनाकर्म के पेटे ऐसा करते पाया जाऊं, मुझे उस दिन से रचनाकार नहीं माना जाए क्योंकि ऐसे में मुझे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक नाटक लगेगी।
रचनाकार अप्रकट को ढूंढ़ता है और इस दौरान उसके मन में एक जिज्ञासा बल्कि जिद होती है कि वह जिसे खोज रहा है वह निश्चित रूप से अनूठापन लिए है, समाज को उसकी खोज का लाभ मिलना चाहिए। ऐसे में खोजे-जाने से पहले ही कुदाल-फावड़ों में प्रायोजकीय सरोकार जुड़ जाएंगे फिर तो सारा फैसला प्रायोजकों का होगा, रचनाकार का क्या बचेगा। क्या होगा उस जिद का जो आदि-रचनाकार वेदव्यास के यह कहने के बाद भी जारी है कि 'महाभारत में जो है वह सृष्टि में है, सृष्टि में नहीं है वो महाभारत में भी नहीं है।' अगर उनके कहने के बाद भी लिखा जा रहा है तो यह उस अप्रकट की खोज का संकेत है लेकिन लिखते हुए खूंटों का वरण किया जाना, क्या है? निश्चित रूप से इसे असुरक्षा, लाभ लेने की चाहत, बड़े लोगों का सान्निध्य जैसे स्वार्थों से नहीं जोड़ा जा सकता क्यों कि अगर इनसे जोड़ा गया तो रचनाकर्म कटघरे में आ जाएगा। कुछ भी हो जाए मैं रचनाकर्म को कटघरे में नहीं रख सकता। हां, यह सच है कि रचनाकार को जब प्रभाव में देखता हूं तो एक हूक जरूर उठती है लेकिन  मुझे ऐसे लोगों से कोफ्त नहीं होती। सच तो यह कि मुझे जब कोई इस तरह लिखने वाला मिलता है तो मुझे उसके दोनों-चारों रूप समझने की तीव्र उत्कंठा होती है। वास्तव में कितना पीड़ादायी होती होगी उनकी लेखन प्रक्रिया जब वे चाहते हुए भी अपनी पसंद का क्लाइमैक्स अपनी रचना को नहीं दे पाते। रचनाकार होते हुए भी उनके लिए कुछ शब्द हैं, पैमाने हैं, अनुशासन है और उससे बंधकर लिखा गया अगर लेखन वे नहीं कर पाते तो उन्हें खूंटे से बंधे दूसरे लोगों की फब्तियों से दो-चार भी होना पड़ सकता है। जब खूंटे में बंधने और बंधे रहने के लिए ऐसा किया जा रहा हो तो फिर मुझे या किसी को भी परेशान होने ही आवश्यकता ही नहीं है। परेशानी तो तब होती है जब खूंटे उखड़ने की आशंका के चलते लोग अपने-अपने खूंटेदार को बचाने का उपक्रम करते हैं। क्योंकि खूंटेदार से ही खूंटे का अस्तित्त्व है। अगर खूंटा ही नहीं बचेगा तो खूंटे से बंधे कहां जाएंगे। इस बचने-बचाने की कोशिश में रचनाकर्म कहां है, कोई यह बताएं तो कुछ सुकून मिले।
- हरीश बी. शर्मा

कहानी - कार्पोरेट

सब जानते  हैं सपना कभी सच नहीं बन सकता लेकिन पता नहीं क्यों  हम सपनों की तरफ दौड़ते  हैं। पाने के लिए हांफने की हद तक कोशिश करते हैं और फिर साकार होने के सपने भी देखने लगते हैं। पता  नहीं एक सपने में कितने-कितने  सपने पैदा कर लेते हैं। हां, सपनों की संतानें नहीं होती। सपनों के सपने ही होते हैं। हजार-हजार सपनों का वंश और एक दिन जब अचानक पहला सपना टूट जाता है तो वंश भी खत्म हो जाता है। बचता नहीं कुछ भी। लोगों का भ्रम तब भी नहीं टूटता और कहते हैं सारे सपने टूट गए।
सारे सपने ? शरमनी की तंद्रा अचानक भंग हुई। क्या सारे सपने कहना सही है। एक ही सपने से पैदा हुए और फिर एक के बाद एक पैदा होते रहे को सारे कहें या एक। एक कहें या अनेक? सोचते-सोचते शरमनी की उंगलियां की-बोर्ड पर तेजी से दौड़ने लगी। शरमनी के काम करने का तरीका यही था। वह जितना ज्यादा सोचती, उसकी उंगलियां उतनी ही तेज दौड़ती और कंम्प्यूटर स्क्रीन पर शब्द बिखरने लगते। कर्कश आवाज देने वाला की-बोर्ड भी जब रफ्तार में आता है तो यूं लगता है जैसे घोड़े दौड़ रहे हैं ओर फिर जब दिल, दिमाग, उंगलियां और स्क्रीन के बीच टयूनिंग बैठ जाती है तो ऐसा लगता है जैसे पेंटिंग रची जा रही है। कर्कश की-बोर्ड ऑर्गन बन जाता है मानो। उभरने लगता है संगीत। शरमनी काम-करते-करते इस हद तक पहुंचकर ही दम लेती। लेकिन अचानक उसे रुकना पड़ा। स्क्रीन पर उभरने लगी थी लहरें। शरमनी का फ्लो टूटा। उसने मोबाइल को देखा, बुदबुदाई- कौन हो सकता है। शायद... लेकिन दिमाग से झटकना चाहा विचार। इस बीच मोबाइल पर मीठी धुन बजने लगी थी। पता चला एसएमएस था। देखा तो बॉस का निकला। शरमनी की रूह एक बार फिर कांप गई। लिखा था मिलकर जाना। शरमनी को पता था ऐसा होगा लेकिन ऐसा होगा तो करेगी क्या। यह नहीं जानती थी और इस बीच हो गया। बॉस का एसएमएस था और वह जानती थी कि अगर आज भी बॉस से मिलकर नहीं गई तो उसका प्रोजेक्ट बिगाड़ा जा सकता है और अगर बॉस से मिलने चली गई तो ....।
शरमनी के पास कोई जवाब नहीं था।  क्या हो जाएगा। ...यही ना कि मुझे यह काम छोड़ देना पड़ेगा। मन के किसी कोने से आवाज आई। ... हां, इससे ज्यादा तो कुछ नहीं और इतने में दिमाग ने ताव खाते हुए कहा - कुछ क्या नहीं, सब कुछ। इस रिक्रूटमेंट का मतलब सब जानते हैं लेकिन अगर यह मिलने के बाद छूट गया तो...। ऐसा अवसर फिर कभी नहीं मिलेगा। फिर मिल भी गया और वहां भी ऐसे ही लोग हुए तो। ऐसे क्यों, यही लोग हुए तो। क्या करेगी शरमनी।
शरमनी को एक-एक करके कनिका की सारी बातें याद आ रही थी।  कल का सारा वाकया जब उसने कनिका से कहा तो कनिका  ने ने कंधे उचकाते हुए कहा, होता है यार...। उसकी नजर  में यह सब नॉर्मल था। यहां तो ऐसा ही होता है। कहते हुए कनिका बिल्कुल भावहीन थी लेकिन शरमनी हैरान। कनिका के लिए यह हैरानी की बात नहीं थी। उसने उल्टे चुहल करते हुए शरमनी से पूछा, मैं तो सोच रही थी अब तक यह सब हो चुका होगा। कनिका की बातों से उसे हर्ट भी किया। कनिका के कहे शब्द उसे याद आ रहे थे। शरमनी, जिस तरह बॉस तुम्हारी तारीफें करते हैं तो हमने सोचा कि...
क्या ? ...क्या सोचा तुम लोगों ने? मतलब क्या है तुम्हारा? शरमनी का अंदाज गिरेबान पकड़ने  वाला था। 
अरे भई मतलब-वतलब कुछ नहीं। ये कार्पोरेट  जगत है। यहा शर्ट के बटन  खोले बगैर कुछ भी नहीं मिलता। ... अगर तुम वास्तव में ऐसा नहीं कर रही हो और आगे भी नहीं करना चाहती हो तो टिक नहीं पाओगी। 
सन्न रह गई थी शरमनी। उसे खुद को नॉर्मल करने में काफी समय  लगा। ...तो ठीक है, मुझे नहीं मंजूर यह सब। छोड़ दूंगी  कंपनी।
फिर क्या करोगी?
दूसरी कंपनी  में...। कहीं ओर काम कर लूंगी। जैसे शरमनी के पास जवाब तैयार था।
वहां भी ऐसे ही मिले तो। चलो छोड़ा,े  ऐसे नहीं मिलेंगे लेकिन  अगर इस कंपनी ने तुम्हारी अगेंस्ट-रिपोर्ट कर दी तो। 
ऐसा क्यों  करेंगे भला?
क्यों नहीं करेंगे। तुम उन्हें कर जा रही हो। 
शरमनी भौंचक्की सी देख रही थी उसे और वह अपनी ही रौ में बोले जा रही थी। लड़ाइयां हम लड़ते हैं शरमनी। अपने आपसे, अपने वजूद से, अपने आसपास से। बड़े लोग लड़ाइयों में वक्त को जाया नहीं करते। कंपनियां सिर्फ फायदे का सौदा करती है।
फिर कार्पोरेट-जगत  में तो लड़ाइयां होती ही नहीं है। बिजनस की भाषा में लड़ना मूर्खता है और तोड़ना कल्चर है। यहां एक-दूसरे के आदमियों को तोड़ने का जश्न मनाया जाता है। राइवल-गु्रप भी आपस में जाम टकराते समय भूल जाते हैं कि वे व्यावसायिक प्रतिद्वंदी हैं।  ऐसे में दो हजार रुपए के ज्यादा पैकेज के चक्कर में बैनर बदलने में देर नहीं लगाने वाले इन लोगों का क्या पता। कल उसी कंपनी में चले आएं जहां तुम हो। फिर बॉस का एसएमएस आए।
देखो तुम  मुझे डरा रही हो।
कनिका ने प्यार से कहा, मैं तुम्हे समझा रही हूं। शरमनी, हो सकता है। बाद में तुम्हे समझाने वाला भी नहीं मिले। इस दौर  में सबकुछ संभव है शरमनी  और तुम उस टिपीकल इंडियन मेंटेलिटी को ढो रही हो। जमाना बदल रहा है शरमनी। इस फ्रेम में ढलना ही वक्त की मांग है।
यानी मैं  बदल जाऊं?
अभी बनी  ही कहां हो? फिर जैसा देस, वैसा वेश। हर्ज ही क्या है यार। कनिका  की साफगोई थी लेकिन बात  दिल को लग गई। शरमनी का फैसला था समझौता नहीं करूंगी।
अब तक कनिका  उसे क्रूर लगने लगी थी।  शब्द कसे हुए थे - तो फिर  जान लो शरमनी, अगर यही  हालात रहे तो जाना ही पड़ेगा।
कनिका की ये सारी बातें शरमनी को एक-एक कर के याद आ रही थी। 
अगर ऐसा  नहीं कर कर सकती तो लौट जाओ।
होगा इतना ही कि इस रिक्रूटमेंट के बाद जितने घरों में मिठाइयां बांटी गई थी, वे सवाल करेंगे। मम्मी की सहेलियों और पापा के दोस्तों के बीच जितनी भी मिसालें दी गई थी उन्हें झुठलाना पड़ेगा। ...कुछ दिन लोग पूछेंगे फिर घर वाले शादी कर देंगे। बच्चे हो जाएंगे। ज्यादा नहीं तो अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम में पढ़ाने का काम तो कर ही सकती हो। शरमनी, सीखा हुआ ज्ञान कुछ न कुछ तो काम आता ही है। कनिका की भाषा में व्यंग्य महसूस हुआ था उसे।
कनिका, तुम  ओवर हो रही हो। देखो मैं  बहुत परेशान हूं। अगर तुम  मुझे रास्ता नहीं दिखा सकती तो अकेला छोड़ दो। मैं  तुमसे अपनी परेशानी शेयर करने आई थी। कनिका ने सिर्फ इतना ही कहा, सॉरी शरमनी। मैंने तो सच्चाई बताने की कोशिश की। मैं जानती हूं तुम्हारे जैसी लड़की के यह सब सोचना भी कितना मुश्किल होता है। सच, शरमनी। ... यहां लोग बहुत गंदे हैं। अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं।  ...एक बार कीचड़ में पैर पड़ जाए तो फिर संभलना मुश्किल है।
शरमनी को भी कुछ नहीं सूझ रहा था।  शरमनी घर आ गई लेकिन बॉस  का एसमएस और कनिका की बातों  से पीछा छोड़ा ही नहीं। जाने कब उसे नींद आ गई और सुबह हुई तो ऑफिस जाने की जल्दी  लग गई। ऑफिस में गई तो बॉस  ने देखा तो फिर से विचलन हुआ लेकिन काम में मन लगाने की कोशिश की। मन लगा भी लेकिन नहीं भी लगा और इससे पहले की कुछ अच्छा होता। एक और एसएमएस सामने था।
क्या करेगी  शरमनी। यह शरमनी भी नहीं जानती  थी और इस जानने, नहीं जानने  के द्वंद्व में उसने तय कर ही लिया कि कुछ भी हो उसे  बॉस के पास जाना ही चाहिए। यह समझना चाहिए कि आखिर वो चाहता क्या है। जाने से पहले उसने सिर्फ इतना ही किया कि एक बार कनिका को फोन कर दिया।
शरमनी नहीं जानती थी उसने ऐसा क्यों  किया लेकिन उसे यह लगने लगा कि इस समय में उसका साथ देने के लिए सिर्फ  कनिका ही है जो सारे हालात को समझती है। हालांकि उसे यह समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या कर रही है। अगर जैसा कनिका ने कहा है वैसा हो गया तो उसका जवाब क्या होगा लेकिन सच्चाई यह थी कि स्थितियों से सामना करने के अलावा उसके सामने कोई चारा नहीं था।
आखिर वह समय आ भी गया जब उसे  बॉस के रूम में जाना था। ऑफिस टाइम खत्म हो चुका था। बॉस बैठे थे। कुछ और एम्प्लॉई जिनका काम बचा हुआ था वे अपने काम में लगे थे। शरमनी ने अपना बैग संभाला और बॉस के कमरे की ओर बढ़ गई।
आओ शरमनी, अच्छा किया जो तुम आज आ  गई वरना हम इससे ज्यादा इंतजार नहीं कर सकते थे। ऑफिस में एंट्री करते हुए बॉस का यह कहना शरमनी के लिए झटके जैसा था लेकिन वह इसे झेल गई।
बॉस ने शरमनी  को देखा और कहा, बैठो। देखो शरमनी, दो दिन तुमने क्या सोचने में बिता दिए यह तो मैं नहीं जानता लेकिन  अगर तुम आज भी नहीं आती  तो शायद एक बड़ी अपोर्च्युनिटी  से चूक जाती। दरअसल, हमारी कंपनी को अपने नए प्रोडक्ट की लांचिंग के लिए कुछ अच्छे लोगों की तलाश है। तुम्हारे काम करने के तरीके को कंपनी ने देखा है। हमें लगता है तुम्हारे अंदर क्षमता है और अगर तुम्हारी इच्छा हो तो इस प्रोडक्ट के लिए तुम्हें बतौर प्रोजेक्ट लीडर के रूप में रखा जा सकता है।
शरमनी के लिए यह समय रोमांचित होने का था लेकिन कनिका की बात  उसके कानों में गूंज रही  थी। उसे लग रहा था बॉस  अब वही कहेगा जैसा कनिका  ने कहा था। शरमनी ने खुद  को संयंत करते हुए पूछा।  बट, सर इसके लिए मुझे क्या करना होगा। 
करना क्या होगा? भई काम करना होगा। जैसा यहां कर रही थी, उससे कुछ ज्यादा। लीडर के मायने तो समझती हो ना...? अगर मंजूर है तो बोलो। इतनी जल्दी नहीं है। गार्जियन से पूछकर कल तक जवाब दे देना।
शरमनी के सामने कहने के लिए कुछ  नहीं था। अगर बॉस की बात  को माने तो वास्तव में बड़ी  अपोर्च्युनिटी थी और कनिका की बात माने तो अभी तक असली बात बाहर आनी बाकी थी लेकिन इससे पहले बॉस ने कह दिया, कल सोचकर बता देना। हालांकि, सोचने के लिए वास्तव में तो कुछ था ही नहीं। ... उसने तय कर लिया था कि उसका जवाब क्या होगा। अभी जो काम कर रही है वही ठीक है। कह दूंगी गार्जियन ने मना कर दिया।  
शरमनी उठकर जाने लगी तो बॉस ने कहा, शरमनी,  मैं जानता हूं  तुम तीन दिन क्यों नहीं आई। कनिका तुम्हारी सहेली  है ना। मैं तुम्हे सिर्फ  एक बात बता देना चाहता  हूं कि जिस प्रोडक्ट के लिए तुम्हे ऑफर किया जा रहा है उसके लिए कनिका  ने खुद चलकर अप्लाई किया था क्योंकि उसे पता है कंपनी में कहां क्या चल रहा है।
उसे जब यहीं पर काम करने के लिए कहा  गया तो उसके पास कंपनी  की बात मानने के अलावा  कोई चारा नहीं था। हां, वो तुम्हे आने से रोक सकती थी। उसने ऐसा किया भी लेकिन  रोक नहीं पाई और तुम यहां पहुंच गई। मुझे इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम मेरी बात को झूठ मानो लेकिन फिर भी मैं चाहूंगा कि तुम यह देखती जाओ।
बॉस के हाथ  में एक पेपर था। शरमनी  ने देखा, कनिका की एप्लीकेशन  थी जिस पर साफ-साफ रिफ्यूस्ड  लिखा दिख रहा था। शरमनी  के पास कहने के लिए कुछ  भी नहीं था। बॉस ने कहा। शरमनी, हमारे से ऊपर भी कोई होता है और हम भी अपने घर-परिवार के लिए  काम करते हैं। मैं अच्छे या बुरे की बात नहीं करता लेकिन सभी को अच्छा या बुरा कहकर सिरे से खारिज करना ठीक नहीं है। मैं जानता हूं कि अगर तुम्हे आगे बढ़ने के अवसर दूंगा तो कंपनी मुझे अच्छे लोग देने के लिए पीठ थपथापाएगी। ... लेकिन यह भी सच है कि जिस तरह कंपनी के पास मेरे जैसे लोगों की कमी नहीं है, उसी तरह तुम्हारे जैसे भी मिल ही जाएंगे। कंपनी को अपना प्रोजेक्ट चलाना है तो वह लीडर बनाएगी ही। चाहे वो तुम हो या कोई और। देट्स ऑल, अब तुम जा सकती हो।
शरमनी के लिए यह सुनना आसमान से जमीन पर गिरने जैसा था।  वह बॉस को सिर्फ थैंक्स कह पाई पाई और निकल गई।  हालांकि उसे अपनी सोच  पर पछतावा हो रहा था लेकिन  इस सोच का सबक उसके जेहन में अभी तक गूंज रहा था।  वह बाहर आई तब तक ऑफिस लगभग खाली हो चुका था। उसे जल्दी से जल्दी घर जाना था। बाहर निकली तो बाइक पर कनिका बैठी दिखी। शरमनी को देखते ही उतर कर उसकी ओर दौड़ी आई। क्या हुआ, एवरीथिंग इज ऑलराइट?
हां, लेकिन  तुम ठीक थी। शरमनी एक-एक शब्द को चबा-चबाकर बोल रही  थी। बॉस ने कहा, अपोर्च्युनिटी  ऐसे ही नहीं मिलती। सोच  लो, लाइफ-स्टाइल बदल जाएगी। सबकुछ कंपनी देगी लेकिन...
... लेकिन  क्या? कनिका सबकुछ जल्दी-जल्दी  जानने के लिए उतावली  हो रही थी। 
शरमनी ने कहा, बॉस बोले, लेकिन फिर  मुझे भूल जाओगी। यह गलत  होगा न। बस, तुम्हे मेरी याद  रहे, ऐसा कुछ करना होगा।
कनिका चिल्लाई, ऐसा कहा उसने? बास्टर्ड।
क्या गलत  कहा कनिका? मैं तो प्रिपेयर थी। थोड़ा आगा-पीछा सोचा और  फिर अपोर्च्युनिटी को ध्यान  में रखा। यहां तो पांच इंक्रीमेंट में भी इतना नहीं मिल पाता।  मैंने कह दिया, आप जैसा कहेंगे वैसा होगा।
कनिका अचंभित थी। उसने पूछा, लेकिन वो अपोर्च्युनिटी? क्या करेगा वो तेरे लिए। 
पता नहीं कनिका, लेकिन मुझे उसकी बातों  पर विश्वास हो गया। सच बताऊं  कनिका, इस वक्त अगर तेरा सबक  मेरे साथ नहीं होता तो शायद मैं हां नहीं कर पाती।  कार्पोरेट जगत में तो ऐसा होता ही है, है ना? अगर  यहां टिके रहना है तो सब करना ही पड़ेगा।
यह कहते हुए शरमनी ने कनिका का कंधा दबा दिया। कनिका  पागलों की तरह शरमनी को देख रही थी जो तेजी से आगे  बढ़ते हुए ओझल हो गई।   
                                  
उडती रेत , बहता पानी, तपता सूरज साथी है
इन से है मेरा सांसो-दम, इतनी मेरी थाती है

Tuesday, June 8, 2010

नाटक वही जो मंच पर आये

वर्ष २००३ में सुरेश हिन्दुस्तानी और २०१० में सुरेश पाईवाल के निर्देशन में मंचित मेरा नाटक 'पनडुब्बी' ऐसा दूसरा नाटक हो गया है जिसका मंचन दूसरी बार दूसरे निर्देशक ने किया. इस से पहले 'हरारत' का मंचन २००५ में विपिन पुरोहित और २०१० में शिमला के मंजीत मन्ना ने किया. नाटक लिखने का सोचने के साथ ही मैंने यह स्वीकार कर लिया था कि जब तक आलेख का मंचन नहीं हो जाता मुझे खुद को नाट्य लेखक नहीं माना जायेगा. अब तक लिखे १६ नाट्य आलेखों में से १३ के मंचन के बाद एक संतोष है लेकिन इस संतोष कि वजह हैं वे निर्देशक जिन्होंने मुझ पर विश्वाश किया. एल. एन. सोनी (सलीबों पर लटके सुख ) सुरेश हिन्दुस्तानी( पनडुब्बी ), सुधेश व्यास( भोज बावलों मीरा बोले, देवता), दिलीपसिंह भाटी( कठफोड़ा ), विपिन पुरोहित( हरारत, ऐसो चतुर सुजान), दिनेश प्रधान( एक्सचेंज), अभिषेक गोस्वामी ( जगलरी), मंजीत मन्ना( हरारत ), रामसहाय हर्ष( एल ओ सी ), रामचंद्र शर्मा( प्रारम्भक), सुकांत किराडू(सराब), मयंक सोनी(गोपीचंद कि नाव ), सुरेश पाईवाल (पनडुब्बी) जैसे गुणी निर्देशकों ने नाटको को मंच देने में ही नहीं बल्कि मंचीय बनने में भी अपना अनुभव बांटा, योगदान दिया. अगर यह साथ नहीं मिलता तो मैं कवि, कथाकार जैसा कुछ भले ही बन जाता नाटककार नहीं बन पता. अगर हम यह मानते हैं कि नाट्य आलेख रंगमंच कि निकाय से निकले बगैर नाटक नहीं माना जा सकता तो लेखक और निर्देशक के बीच जुगलबंदी को स्वीकार करना ही होगा. अगर निर्देशकों ने स्थानीय लेखकों के आलेख पर काम शुरू किया है तो लेखकों को भी सहयोग के लिए आगे आना चाहिए. रंगमंच पर बैठकर, रंगमच को जान-समझते हुवे लिखे जायेंगे तो फिर मंचित भी होंगे, इस में दो राय नहीं है.

Saturday, June 5, 2010

राजस्थानी कविता : थमपंछीड़ा

अरे
थम पंछीड़ा
ढबज्या
देख
सूरज रो ताप बाळ देवैलो।
बेळू सूं ले सीख
कै उड बठै तांई
जित्ती है थारी जाण
जित्ती है थारी पिछाण

राजस्थानी कविता : आमआदमी

जिको नीं जाणै
मांयली बातां
गांव री बेळू ने सोनो
अर पोखरां में चांदी बतावे।
सन् सैंताळिस रै बाद हुया
सुधार गिणावै
नूंवै सूरज री अडीक राखै
अर अंधारो ढोवै।
छापै में छपी खबरां
पढ़ै अर चमकै
बो आम आदमी है।

राजस्थानी कविता : हिचकी

म्हारी जिनगाणी रे रोजनामचे में
थारी ओळूं
हिचकी बण'र उभरे
अर बिसरा देवै सै कीं
म्हारो आगो-पाछो
ऊंच-नीच
हां, सैं कीं
चावूं, नीं थमे हिचकी
भलां ही हिचकतो रूं सारी उमर
अर थारै नांव री हिचकी ने
देंवतो रूं दूजा-दूजा नांव
दाब्या राखूं म्हारो रोजनामचो
जाणूं हूं
थारै अर म्हारे बिचाळै री आ कड़ी
जे टूटगी तो फेर कांई रैवेला बाद-बाकी
इण साचने सोधण बाद
म्हें हूं म्हारे दुख-सुख रो जिम्मेवार
पण बता तो सरी
थूं कियां परोटे है म्हारे नांव री हिचकी

राजस्थानी कविता : सिरजण पेटे

थारै खुरदारा शबदां ने
परोटतां अर
थारै दिखायोड़ै
दरसावां पर
नाड़ हिलांवता ई'जे
म्हारा जलमदिन निकळना हा
फैरुं क्यूं दीनी
म्हने रचण री ऊरमा
सामीं मूंढ़े म्हांसू बात नीं करण्या
थारै परपूठ एक ओळभो है
कीं तो म्हारे रचण अर सिरजण पेटे ई
'कोटो' रखतौ।

राजस्थानी कविता : ओळख

जमीन अबेस म्हारी ही
जद बणावण री सोची एक टापरो
निरैंत पाणै री कल्पना में
करणी सोची कीं थपपणा
अपणापै री
एक भाव री जको उजास देवै
मन पंछी ने।
पण जमीन रो टुकड़ो
कई दे'र देवतो
ब्ल्यू प्रिंट खिचिजग्या
अर म्हारी कल्पना रा सैं धणियाप
अचकचा'र खिंडग्या
खड़ी हुवण लागी भींत्या
बणग्यो घर
एक ऊंची बिल्डिंग
जके में म्हारो धणियाप इत्तो ही हो
क म्हारै कारणै इणरी योजना बणी
राजी करण ने कइ लोग मिळ परा
बचावण ने फ्रस्टेशन सूं
नांव दियो म्हनै नींव रो भाटो
म्हारै जिसा घणखरा
इण बिल्डिंग हेठे
भचीड़ा खा-खा'र एक-दूजे सूं
धणियाप जतावंता आपरो
जाणन लाग्या हां
धीरे-धीरे आपरी ओळख
हुया संचळा
थरपिजग्या आप-आपरी ठौड़
पूरीजी म्हारी आस
निरैंत पाणै री कल्पना

राजस्थानी कविता : खूंट

म्हारी खूंट री परली ठौड़ रो दरसाव
तिस ने बधावै
अर म्हारै पांति रे तावड़े ने
घणौ गैरो करे।
थारी छियां
म्हारी कळबळाट बधावण सारु
कम नीं पड़े।
थनै पाणै री बधती इंच्छा
देखतां-देखतां तड़प बण जावै
जिकै में रैवे थारै नांव रो ताप, ओ ताप
तोड़ देवै है कईं दफै हदां - थारी अर म्हारी खूंट बीचली

राजस्थानी कविता : चाळणी

रोजीना थारै शबदां बिंध्योड़ी चालणी
म्हारे मन में बण जावै
थूं जाणनो चावै कम अर बतावणो चावै घणौ।
म्हारे करियोड़े कारज में
थूं खोट जोवै
अर कसरां बांचै
म्हे जाणूं हूं, पण चावूं
थूं थारी सरधा सारु इयां करतो रे
चायै म्हारे काळजे में चाळनियां बधती जावै
काल थारा कांकरा अर रेतो
ई चालणी सूं ई छानणो है

राजस्थानी कविता : सुपारी

सरोते रे बीच फंसी सुपारी
बोले कटक
अर दो फाड़ हुय जावै
जित्ता कटक बोलै
बित्ता अंस बणावै
लोग केवै सुपारी काटी नीं जावै
तद ताणी
मजो नीं आवै-खावण रो
आखी सुपारी तो पूजण रे काम आवै
पूजायां बाद
कुंकु-मोळी सागै पधरा दी जावै
स्वाद समझणिया सरोता राखै
बोलावे कटक
अर थूक सागै, जीभ माथै
रपटावंता रेवै सुपारी ने
सुपारी बापड़ी या सुभागी
जे जूण में आई है-लकड़ां री
अर सुभाव है-स्वाद देवणों
तो ओळभो अर शबासी कैने

जिंदगी

जीवन को
धूप-छांव का सहकार कहो
या दाना चुगती चिड़ियों के साथ
नादां का व्यवहार
पागल के हाथ पड़ी माचिस-सी होती है जिंदगी
दीवाली की लापसी, ईद की सिवइयां
क्रिसमस ट्री पर सजे चॉकलेट्स से
बहुत मीठी होती है जिंदगी
जिसे जीना पड़ता है
लेकिन सुधी पाठक ज्यादा माथा नहीं दुखाते
किताब बंद करते होते हैं
जब समाप्त लिखा आता है।
पेपरवेट
फड़फड़ाते कागजों के हाथों
'आखा' देकर, पवित्रता की पैरवी करती
दंतकथाएं सुनाती बुढ़ियाएं
कितनी ही तीज-चौथ करवा चुकी है
लेकिन अब ये पेपरवेट कम होने लगे हैं
उड़ने लगे हैं कथा के कागज
चौड़े आने लगा है चंदामामा से धर्मेला
तीज-चौथ आज भी आती है
भूखे पेट रहकर, आखा हाथ मे रखकर
बची-खुची बुढ़ियाएं तलाश, कथाएं फिर सुनी जाती है
फिर होती है ऐसे पतियों पर बहस
घंटों चलती है - उस जमाने पर टीका-टिप्पणी
सीता और द्रोपदी के दुख-सुख पर चटखारे
चलनी की आड़ से देखे चांद की
खूबसूरती भी शेयर की जाती है
'हम ही क्यों रखें व्रत'
ऐसी सुगबुगाहट भी होती है
कुछ ऐसी बातों पर ध्यान नहीं देते
कहते हैं-बाकी है अभी बहुत कुछ
कुछ कहते हैं-खेल ही अब शुरू होगा बराबरी का
जब कुछ भी नहीं रहेगा चोरी-छाने

शहर मेरा

पहला
हॉर्न होते हैं संक्रामक
बजते ही जाते हैं
मेरा शहर, जहां नहीं है वन-वे
जाने क्यों फिर भी
लोग नहीं टकराते हैं
तुम कह सकते हो सहिष्णु हैं
टकराकर भी कहते हैं जाने भी दो यार
या के इतने हो गए हैं ढीठ
जानते हैं, होना क्या है
ये शहर ऐसे ही चलेगा
किस-किस से करेंगे तकरार

दूजा
मुझे लगता है
सुकून-सिर्फ आरओबी पर मिलेगा
सबसे ऊंची जगह
दिखती है सिर्फ दौड़ती गाड़ियां
मैं रुकता हूं
रात कुछ बाकी
कुछ कोल्ड... कुछ ड्रिंक्स
सबकुछ अपने मन जैसा
अचानक, कोई पुकारता है
हरीश!
मैं झल्लाता हूं....
यार, ये शहर इतना छोटा क्यों है

तीजा
उन्हें चाहिए कान्वेंट की कविता
और मैं मारजा की दी ईंट को
हाथ पर रखे
घोटता पाटी
जूझता हूं कविता से
कवायद कविता की नहीं
चाहत, अंतर पाटने की है
इस कोर्ट मैरिज में
मैं कहीं सुन ही नहीं पाता
अंतरपट दो खोल
* यह कविता बीकानेर के सन्दर्भ में लिखी गई है.

क्योंकि आदमी हैं हम

एक
मैं सरयू तट पर नाव लेकर
आरण्यक में एक से दूसरी शाख पर झूलते
लंका में अस्तित्त्वबोध के शब्द को संजोए
अपनी कुटिया में रामनाम मांडे
अलख जगाए-धूनी रमाए
प्रतीक्षा करता हूं-प्रभु की
और निष्ठुर प्रभु आते ही नहीं।
दो.
चाहता हूं प्रभु
फिर तुम्हें एक लंबा वनवास मिले
अपने परिवार से होकर अलग
तुम वन-वन भटको
रात-रात भर सीते-सीते करते जागो
फिर जब सीता मिले
उसको भी त्यागो
तीन
हे राम!
पुरुषोत्तम की यह उपाधि
तुम्हे यूं ही नहीं दी गई है
मर्यादा के, साक्षात सत्य के अवतार थे तुम तो
तभी तो तुम पुरुषोत्तम कहलाए।
विश्वसुंदरी की तरह चलवैजयंती भी नहीं है यह उपाधि
जो हर साल किसी और को मिल जाए
क्या तुम्हें इतना भी पता नहीं है!
चार
प्रभु!
इतने स्वार्थी मत बनो
मानवता के नाते आओ
हे अवतार! हे तारणहार!
हमें इन अमानुषों
समाजकंटकों से बचाओ
कब तक हम
इन दानवों से लड़ सकते हैं
आखिर तो बाल-बच्चेदार हैं
परिवार-घरबार, भरापूरा संसार है
कैसे बिखरती देख सकती हैं
मेरी इंसानी आंखें यह सब
पांच
वादा रहा
आपका संघर्ष व्यर्थ नहीं जाने दूंगा
मंदिर बनवाऊंगा, मूर्तियां लगवाऊंगा
मानवता के प्रति आपकी भूमिका के पेटे
एक वाल्मीकी, हाथों-हाथ अपॉइंट करवा दूंगा
वक्त-जरूरत
तुलसीदास जैसों की सेवाएं भी ली जाएंगी
आप आइये जरूर खूब महिमा गाई जाएंगी।

बुलबुले

काले झंडे, मुर्दाबाद की तख्तियां
कसकर बांधी मुट्ठियां
अतिरेक में इनकलाबी
लगता है दूर नहीं आजादी
असली आजादी
फिर सब सामान्य
नियंत्रण में लगता है माहौल
मिल जाते हैं अधिकार
मिल जाती है आजादी
हर बार मिलती है यह आजादी
असली आजादी
फिर एक दिन तख्तियां निकल आती हैं
मुट्ठियां भिंच जाती हैं
आजादी मांगी जाती है
पूछलें-पिछली का क्या हुआ
जवाब होगा-खा-पीकर खत्म की

न बाहर, न बाद

ढाणियों पर राज को
बांटने समाज को
चलती है तलवारें
रिश्तों की गर्मी पिघल जाती है रोज
खुलते हैं अपने-अपने क्षेत्र
कह दें कुरुक्षेत्र
रचती है महाभारत
पीढ़ियां पढ़ाने के लिए
घड़ दिया जाता है इतिहास
द्रोपदी की लाज, पांडवों का वनवास
कृष्ण का अघोषित रास
आज भी बिकता है।
कृष्ण की गवाही पर पांडव बरी
शकुनि की कोशिशें नाकाम
दुर्योधन बदनाम
त्रियाचरित्र के क्लाईमैक्स के साथ
खत्म होती है महाभारत
सत्यवती से द्रोपदी तक सबूत ही सबूत
महाभारत खत्म होती है
भीष्म को मिलता है
लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड
शिखंडी यहां भी नहीं होता है
अन्न के कांसेप्ट पर झुक जाते हैं सबके शीश
फिर कौन पूछे भीष्म से महाभारत का कारण
आज भी छाती ठोककर कहता है वेदव्यास
न जयसंहिता से बाहर, न है कुछ भी इसके बाद
दोहराई जाती है द्रोपदी
सम्मान पाते हैं देवव्रत साहब।

कई बार

मुझे कई बार उतरना पड़ा है
सैलून की सीट से
थर्ड की टिकट-खिड़की पर
नंबर आते-आते
कई बार धकेला गया हूं मैं
पीड़ा हर बार हुई
मलहम लगाकर छुट्टी की
कभी कुरेदा ही नहीं
नासूर बनने नहीं दिए ऐसे घाव
क्योंकि माना गया जिसे नियति
उससे उलाहना क्या
फिर ऐसे लोगों की
स्टोरी भी तो नहीं बनती

चेहरे चार

एक
सात समंदर-सात आसमां
सात शत्रु हैं मेरे
सभी दिशा-दरवाजे देखे
खुले सातवें फेरे
इतने जतन सत् शोधन को
कितने हुए सवेरे
सूरज बोला
निकल अंधेरे
देखले सच्चे चेहरे
दो
भाषा तेरी
भाषण मेरे
चेहरे पर हैं चेहरे
कौन दोस्त, किसे दुश्मन मानें
पहचानें पर संकट जानें
आस्तीन को कौन खंगाले
संकर हुए सपेरे
तीन
रेत का सागर, तपते धोरे
सपने सीझे मुंह अंधेरे
सुबह जगें तो जलते खीरे
पानी बहुत है गहरे
पानी बहुत है गहरे
चार
रतजगे मेरे
भाव घनेरे
कैसे प्रकटूं तेरे-मेरे
तीजे नाम पे तलपट हो गई
इतने तेरे-उतने मेरे
टूटे सारे पहरे

तृप्तिबोध

तृप्तिबोध
तूने दिया
तूने बताया मैने पीया हलाहल
अब बच नहीं पाऊंगा
.....
तुझे क्या पता
तेरा यही रूप देखने
जी रहा था मैं
हां, अतृप्त

अपनापा

मैं
हाथ तेरा हाथ में ले
पवन बांधू साथ
चलूं सागर सात,
सातो भौम
अपनापा रचूं।
मैं रचूं एक-एक अणु में आस्था
भाव भर दूं
सूत्र-से साकार दूं
कुछ पैहरन बेकार
वो उतार दूं
हो वही मौलिक
कि जितना रच रहा
आवरण सारे वृथा उघाड़ दूं

कविता

कविता क्या है
मन की कल्पना
तन की अल्पना
प्रकृति के रंगों की रंजना
टेढे-मेढ़े पथरीले रस्तों पर चलता कोई अनमना
यही कवि का परिचय है

Friday, June 4, 2010

विचार किसी अंतर्धारा का परिणाम नहीं बल्कि सामान्यतया ये तात्कालिकता के आधार पर सामने आते हैं। बहुत से देखे गए हैं जो बहुत जल्दी बदलते हैं खुद को, बहुत जल्दी सहज हो जाते हैं। शायद इसीलिए कहा गया है के गुस्सा बहुत समझदार होता है, ये जानता है कहाँ आना है।

Wednesday, June 2, 2010

हम विजय हैं हम हैं विजेता
अभियानों के सोपान हैं हम
हम ही राष्ट्र हैं, हम हैं प्रहरी
काल चक्र के आह्वान हैं हम