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Thursday, June 10, 2010

दखल - रचनाकर्म में गुलामी या गुलाम रचनाकर्म

रचते समय वाद से अभिप्रेरित होने, संप्रदाय की दीक्षा लेने और पंथों के अनुयायी बनने की कितनी जरूरत होती है, यह भले ही अनुभव नहीं हुआ हो लेकिन पिछले कई दशकों से यह साबित हो चुका है कि भले ही रचना लेखन के दौरान वाद और संप्रदाय की जरूरत नहीं हो लेकिन रचनाकार के लिए इन सबसे से प्रेरित होना जरूरी माना जाता है। गोया कि उसके लिए एक खूंटा जरूरी है। फिर इस तरह के खूंटे से बंधे सभी लोगों का एक संघ भी जरूरी है। लिखना शुरू करने से पहले या कुछ बाद में अगर इस तरह के एक खूंटे से नहीं बंधे तो फिर लिखा गया ही नहीं बल्कि लिखा जाने वाला भी खारिज किया जा सकता है।
मेरा साफ मानना है कि लेखन के लिए वाद, संप्रदाय या पंथ की जरूरत नहीं है। इससे भी कड़वा कहूं तो मैं नहीं मानता कि लेखन के पेटे किसी भी वाद, संप्रदाय या पंथ का गुलाम बनूं। जिस दिन मैं अपने रचनाकर्म के पेटे ऐसा करते पाया जाऊं, मुझे उस दिन से रचनाकार नहीं माना जाए क्योंकि ऐसे में मुझे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक नाटक लगेगी।
रचनाकार अप्रकट को ढूंढ़ता है और इस दौरान उसके मन में एक जिज्ञासा बल्कि जिद होती है कि वह जिसे खोज रहा है वह निश्चित रूप से अनूठापन लिए है, समाज को उसकी खोज का लाभ मिलना चाहिए। ऐसे में खोजे-जाने से पहले ही कुदाल-फावड़ों में प्रायोजकीय सरोकार जुड़ जाएंगे फिर तो सारा फैसला प्रायोजकों का होगा, रचनाकार का क्या बचेगा। क्या होगा उस जिद का जो आदि-रचनाकार वेदव्यास के यह कहने के बाद भी जारी है कि 'महाभारत में जो है वह सृष्टि में है, सृष्टि में नहीं है वो महाभारत में भी नहीं है।' अगर उनके कहने के बाद भी लिखा जा रहा है तो यह उस अप्रकट की खोज का संकेत है लेकिन लिखते हुए खूंटों का वरण किया जाना, क्या है? निश्चित रूप से इसे असुरक्षा, लाभ लेने की चाहत, बड़े लोगों का सान्निध्य जैसे स्वार्थों से नहीं जोड़ा जा सकता क्यों कि अगर इनसे जोड़ा गया तो रचनाकर्म कटघरे में आ जाएगा। कुछ भी हो जाए मैं रचनाकर्म को कटघरे में नहीं रख सकता। हां, यह सच है कि रचनाकार को जब प्रभाव में देखता हूं तो एक हूक जरूर उठती है लेकिन  मुझे ऐसे लोगों से कोफ्त नहीं होती। सच तो यह कि मुझे जब कोई इस तरह लिखने वाला मिलता है तो मुझे उसके दोनों-चारों रूप समझने की तीव्र उत्कंठा होती है। वास्तव में कितना पीड़ादायी होती होगी उनकी लेखन प्रक्रिया जब वे चाहते हुए भी अपनी पसंद का क्लाइमैक्स अपनी रचना को नहीं दे पाते। रचनाकार होते हुए भी उनके लिए कुछ शब्द हैं, पैमाने हैं, अनुशासन है और उससे बंधकर लिखा गया अगर लेखन वे नहीं कर पाते तो उन्हें खूंटे से बंधे दूसरे लोगों की फब्तियों से दो-चार भी होना पड़ सकता है। जब खूंटे में बंधने और बंधे रहने के लिए ऐसा किया जा रहा हो तो फिर मुझे या किसी को भी परेशान होने ही आवश्यकता ही नहीं है। परेशानी तो तब होती है जब खूंटे उखड़ने की आशंका के चलते लोग अपने-अपने खूंटेदार को बचाने का उपक्रम करते हैं। क्योंकि खूंटेदार से ही खूंटे का अस्तित्त्व है। अगर खूंटा ही नहीं बचेगा तो खूंटे से बंधे कहां जाएंगे। इस बचने-बचाने की कोशिश में रचनाकर्म कहां है, कोई यह बताएं तो कुछ सुकून मिले।
- हरीश बी. शर्मा

3 comments:

  1. प्रिय भाई साहब,

    पंथ, संप्रदाय या वाद की गुलामी तो जिंदगी के हर पेटे मनुष्य को मनुष्य होने कि सारी सम्भावनाओ से लगभग विमुख ही करती है फिर सिर्फ लेखनी या रचनाकर्म के ऊपर ही ये सुरक्षा कवच क्यूँ. रचनाकर्म में गुलामी या गुलामी का रचनाकर्म आज के समय की लगभग सचाई है जिसमे पुरस्कारों से लेकर ब्लॉग पर टिप्पणियों की फडफडाहट शामिल है. हम सब किसी "के लिए" लिखने की गुलामी के भी शिकार हैं इसलिए रचनाकर्म कटघरे में खड़ा नहीं होकर भी खड़ा है क्यूंकि हमारे भीतर एक जज हमेशा न्याय की रचनाधर्मिता को तय करने के लिए आइना बन बैठा है. भले ही हम उसका फैसला सुने या ना सुने.

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  2. ब्लॉग पर टिप्पणियों की फडफडाहट... हा.. हा..हा...

    तुम शायद टिप्पणियाँ पाने कि फडफडाहट कहना चाहते हो लेकिन ये बात दूसरी है. अपने लिखे के प्रति पाबंद रहने या लिखे को कसौटियों पर कसने से भी इसे समझा जाना चाहिए. कम से कम यहाँ लिखा मन का तो है. फिर ये चाहे जैसा भी हो, गुलाम नहीं कहा जा सकता. हाँ, हम अपने अन्दर बैठे न्यायाधीश के प्रति आशंकित होने कि वजह से ही खुद को आजमाइश में उतारे रहते है.

    हालाँकि यह सच है कि तुम जैसे गुणीजन की टिप्पणियाँ किसी लल्लू ब्लॉगर की प्रतिष्ठा को भी बढ़ा सकती है, जैसे एक उदहारण मेरा शामिल कर सकते हैं.

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  3. यह आपका बड़पन ही है कि मैं आपके लिखे पर टिपण्णी करने की हिमाकत कर रहा हूँ वरना मेरी हेसियत में तो इतना होंसला कहाँ लिखा था.

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