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Tuesday, June 8, 2010

नाटक वही जो मंच पर आये

वर्ष २००३ में सुरेश हिन्दुस्तानी और २०१० में सुरेश पाईवाल के निर्देशन में मंचित मेरा नाटक 'पनडुब्बी' ऐसा दूसरा नाटक हो गया है जिसका मंचन दूसरी बार दूसरे निर्देशक ने किया. इस से पहले 'हरारत' का मंचन २००५ में विपिन पुरोहित और २०१० में शिमला के मंजीत मन्ना ने किया. नाटक लिखने का सोचने के साथ ही मैंने यह स्वीकार कर लिया था कि जब तक आलेख का मंचन नहीं हो जाता मुझे खुद को नाट्य लेखक नहीं माना जायेगा. अब तक लिखे १६ नाट्य आलेखों में से १३ के मंचन के बाद एक संतोष है लेकिन इस संतोष कि वजह हैं वे निर्देशक जिन्होंने मुझ पर विश्वाश किया. एल. एन. सोनी (सलीबों पर लटके सुख ) सुरेश हिन्दुस्तानी( पनडुब्बी ), सुधेश व्यास( भोज बावलों मीरा बोले, देवता), दिलीपसिंह भाटी( कठफोड़ा ), विपिन पुरोहित( हरारत, ऐसो चतुर सुजान), दिनेश प्रधान( एक्सचेंज), अभिषेक गोस्वामी ( जगलरी), मंजीत मन्ना( हरारत ), रामसहाय हर्ष( एल ओ सी ), रामचंद्र शर्मा( प्रारम्भक), सुकांत किराडू(सराब), मयंक सोनी(गोपीचंद कि नाव ), सुरेश पाईवाल (पनडुब्बी) जैसे गुणी निर्देशकों ने नाटको को मंच देने में ही नहीं बल्कि मंचीय बनने में भी अपना अनुभव बांटा, योगदान दिया. अगर यह साथ नहीं मिलता तो मैं कवि, कथाकार जैसा कुछ भले ही बन जाता नाटककार नहीं बन पता. अगर हम यह मानते हैं कि नाट्य आलेख रंगमंच कि निकाय से निकले बगैर नाटक नहीं माना जा सकता तो लेखक और निर्देशक के बीच जुगलबंदी को स्वीकार करना ही होगा. अगर निर्देशकों ने स्थानीय लेखकों के आलेख पर काम शुरू किया है तो लेखकों को भी सहयोग के लिए आगे आना चाहिए. रंगमंच पर बैठकर, रंगमच को जान-समझते हुवे लिखे जायेंगे तो फिर मंचित भी होंगे, इस में दो राय नहीं है.

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