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Saturday, June 5, 2010

शहर मेरा

पहला
हॉर्न होते हैं संक्रामक
बजते ही जाते हैं
मेरा शहर, जहां नहीं है वन-वे
जाने क्यों फिर भी
लोग नहीं टकराते हैं
तुम कह सकते हो सहिष्णु हैं
टकराकर भी कहते हैं जाने भी दो यार
या के इतने हो गए हैं ढीठ
जानते हैं, होना क्या है
ये शहर ऐसे ही चलेगा
किस-किस से करेंगे तकरार

दूजा
मुझे लगता है
सुकून-सिर्फ आरओबी पर मिलेगा
सबसे ऊंची जगह
दिखती है सिर्फ दौड़ती गाड़ियां
मैं रुकता हूं
रात कुछ बाकी
कुछ कोल्ड... कुछ ड्रिंक्स
सबकुछ अपने मन जैसा
अचानक, कोई पुकारता है
हरीश!
मैं झल्लाता हूं....
यार, ये शहर इतना छोटा क्यों है

तीजा
उन्हें चाहिए कान्वेंट की कविता
और मैं मारजा की दी ईंट को
हाथ पर रखे
घोटता पाटी
जूझता हूं कविता से
कवायद कविता की नहीं
चाहत, अंतर पाटने की है
इस कोर्ट मैरिज में
मैं कहीं सुन ही नहीं पाता
अंतरपट दो खोल
* यह कविता बीकानेर के सन्दर्भ में लिखी गई है.

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