LATEST:


विजेट आपके ब्लॉग पर

Thursday, June 17, 2010

नव सृजन का रिक्ग्नाईजेशन बनाम एक पर एक फ्री

जयपुर के बोधि प्रकाशन से बहुत ही कम कीमत पर साहित्यिक कृतियाँ उपलब्ध करने कि संकल्पना इन दिनों चर्चा में है. पहले पड़ाव में दस कृतियां सौ रुपये में उपलब्ध करने के बाद दूसरा चरण राजस्थानी साहित्य को समर्पित करने का विचार सराहनीय है. ऐसा होगा तो दस राजस्थानी कृतियां सस्ती कीमत पर पाठकों को उपलब्ध होगी. चर्चा यह है कि पैमाना क्या रहेगा...
पहले चरण में शामिल विधाओं में कविताओं कि बहुतायत उल्लेखनीय है. इतना बड़ा रिस्क उठाने वाला प्रकाशक जरूर इस सवाल से जूझा ही होगा. पूरे मंथन  के बाद ही सर्वाधिक कृतियां काव्य कि रही होगी, अकारण ही नाटक एक भी नहीं रहा होगा. लगभग सभी विधाओं का प्रतिनिधित्व  प्रकाशकीय इमानदारी का परिचायक है. रही बात लेखकों के चयन कि तो ये सवाल तो कभी भी उठाये जा सकते हैं. कोई तो दस होंगे ही.
इस बीच अगली बार राजस्थानी रचनाकारों में शामिल होने के लिए कवायद भी शुरू हो गई है. मुझे याद आता है कि बोधि प्रकाशन के इस प्रयास पर पैसे लेकर किताबें छापने का अंदेशा भी व्यक्त किया गया था. बोधि प्रकाशन ने ऐसा किया होगा, नहीं जनता लेकिन दूसरे कईप्रकाशन  ऐसा करते हैं, यह बहुत ज्यादा छिपा हुआ नहीं है. मेरा तो इतना भर मानना है कि पैसा लेकर एक हज़ार प्रतियाँ भी नहीं छापने वाले प्रकाशकों से यह प्रयास बेहतर है जिसका लक्ष्य तीस हज़ार सेट छापने का है. ऐसा होता है तो पैनल में शामिल रचनाकार कि बल्ले-बल्ले.
सुना है कि घाटे-नफे के गणित में नहीं पड़ प्रकाशक ने सिर्फ सस्ता साहित्य प्रकाशित करने का संकल्प लिया है. यह संकल्प तब तक घाटे का माना जायेगा जब तक तीस हज़ार सेट नहीं बिक जाते. छह महीने का समय है. शुभचिंतकों का सहयोग और अपनी तरह का पहला प्रयास. ऐसे में उत्साह और समर्थन लाजिमी है.
बार-बार जो सवाल साल रहा है वो यह कि क्या साहित्यिक कृतियों का कथित रूप से महंगा होना ही वह वजह है जो पाठकों को दूर कर रही है.
सवाल तो यह भी है कि क्या वास्तव में लोग  किताबें खरीदकर नहीं पढ़ते ?
या ये संकट भी सुनियोजित रूप से रचा गया है?
याद रहे, पाठक खत्म होना और पढने वाले खतम होना दो अलग-अलग तरह कि बातें है. 
इन बातों का ताल्लुक भी अलग-अलग तरह के लोगों से है.
जिस तरह नेट के माध्यम से देश-दुनिया के लेखक-रचनाएँ एक क्लिक पर उपलब्ध है और लोग लगातार साइट विजिट करते हुवे अपनी पसंद का पढ़ रहे हैं, तृप्त हो रहे हैं. मुझे ये पढने वालों कि समस्या नहीं लगती.
मेरी नज़र में  सस्ता साहित्य उपलब्ध करने के इस तरीके को बाजारवाद कि प्रेरणा माना जाना चाहिए. जैसे बाज़ार उपभोक्ताओं कि रूचि को ध्यान में रखते हुवे एक पर एक फ्री जैसे ऑफ़र दिए जा रहे हैं, वैसा ही यहाँ भी हुआ. कुछ नामचीनों को साथ रखते हुवे सेट तेयार किया गया है.
जरा सोचिये, सौ रूपये में आप को दस में से ऐसे कितने लेखकों को पढने के लिए मजबूर किया जा सकता है जिन में आप को रूचि ही नहीं. जाहिर है, रूचि होती तो आप सेट का इंतज़ार थोड़े ही करते. क्या ऐसा करने से कोई लिखने वाला लेखक के रूप में स्थापित हो सकेगा?
क्या वास्तव में एक के बदले एक मुफ्त पाने वाला ग्राहक भविष्य के लिए आपके प्रोडक्ट का अभ्यस्त हो जायेगा?
यानी अगली बार किसी भी पुस्तक मेले में उस लेखक कि कृति कि मांग करेगा?
ऐसा होना चाहिए. ऐसा हो तो कोई बुराई भी नहीं. नया तरीका है, कहे का ऐतराज़...मज़ा आ जायेगा. मुझे भी फिर अगले सेट के लेखकीय पैनल में शामिल होने का रास्ता खोजना पड़ेगा. नव सृजन के रिक्ग्नाईजेशन का यह तरीका भले ही बज्ज़रवाद से प्रेरित हो लेकिन साहित्य में इसे नवाचार के रूप में ही लेना चाहिए.

2 comments:

  1. भईये आल इज वेल बोल आल इज वेल
    पुस्‍तकें प्रोडक्‍ट है और प्रोडक्‍ट जैसे ही बिक रही है बल्कि यूं कहना चाहिये कि बेचने का प्रयास हो रहा है, ज्‍यादा सोचो मत प्रेमचन्‍द की गोदान चालीस रूपये में है और अप्‍पन के जैसे की एक सौ पच्‍चीस की, सोचूं कि इस लिहाज से तो ये बोधि वाले वंदनीय है,

    ReplyDelete
  2. vandna to he hi purohitji. baat je etti si hoti to kya kahne the...apni to ye aadat he ke sab khul ke hi kahte...

    ReplyDelete