LATEST:


विजेट आपके ब्लॉग पर

Thursday, June 17, 2010

नास्तिक की दलीलों में सच लग था

मन बिना की मस्तियाँ आँखों ने बांची
सादगी से सार ली, जो बातें थीं साची
प्राण में दम था क्या जो छोड़े पिंजर
छुट गया घर-बार, मेहँदी हाथ राची
नास्तिक की दलीलों में सच लग था
क्या करें मूरत अभी थी बहुत काची
उड़ा छप्पर, सहारे को शब्द सहचर
अब थी भाभी या किसी की वो चाची
कहने को तेरी पनाहें नाम मेरे
तुने तो लकीरें पहले ही खांची

2 comments:

  1. वाह भाई साहब ! आपके शब्दों के नए बिम्बों और प्रतिमानों के साथ मैं बहता ही चला गया. ..नवीन उपमानो के ताने-बाने में बुनी यथार्थ का श्रृंगार कर आपकी भावाभिव्यक्ति अंतर्मन में बेहद प्रभाव छोडती है.. ख़ास कर ये पंक्तियाँ बहुत गहन अर्थ लिए हुवे है...
    नास्तिक की दलीलों में सच लग था
    क्या करें मूरत अभी थी बहुत काची

    आपकी सक्रीयता ही हमारी ऊर्जा है..जो पग-पग पर हमारा मार्गदर्शन करती हुई लक्ष्य की ओर अग्रसर होने में हमारा मार्ग अनुभवों की रोशनी से प्रकाशित करती है.. आप ऐसे ही लिखते रहिये ओर हमारा पथ प्रदर्शित करते रहिये....हमारी आपसे येहीगुज़ारिश है..आपका बहुत आभार !!

    ReplyDelete
  2. रचना का अपना सुख है लेकिन ये सुख तब बढ़ जता है जब पाठक रचना के साथ रचनाकार के संवेग से जुड़ जाये. वास्तव में आप ने जिन पंक्तियों का जिक्र किया है हालात वैसे ही हैं. हम अपने सच के प्रति सिर्फ इसलिए आशंकित रहते हैं क्यूंकि कोई दूसरा अपने तर्कों से हम पर हावी हो जता है.

    ReplyDelete