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Wednesday, May 18, 2011

कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी

वह लगे सुहानी बरखा सी
सूखे मरु को है सरसाती
कभी संवेदन, कभी स्पंदन
कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी

वो प्रणय कवि की ज्यों पंक्ति
वह कशिश गजल का मतला ज्यूं
वह छुअन बहारों की समीरा
वह लाज उदित होते रवि की
वह छन-छन पायल की भाषा
वह हंसी कहीं बिजली चमकी
कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी

वह घनश्यामल बिखरी जुल्फें
वह दीपशिखा मद्धिम-मद्धिम
वह बंदनवार बहारों की
वह चरम बसंती पुरवाई
वह लय है गीतों की मेरे
वह वीणा मेरी वाणी की
कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी

वह दिल में बसी प्यारी मूरत
वह जिसे सजाया ख्वाबों में
वह झील-सी गहराई जिसमें
हम डूबते ही हर बार चले
वह खिलता कमल, सिमटी दुल्हन
वह तुलसी मेरे अंगना की
कभी संवेदन, कभी स्पंदन, कभी आमंत्रण, कभी अनदेखी

- हरीश बी. शर्मा

1 comment:

  1. घणी खम्मा !
    क्या खूब सूरती से आप बिम्ब बनाए है सुंदर प्रयोगों से युक्त .बरखा छाती छाती घर के आँगन कि शुशोभित करना लगती है . क्या बात है हरीश भी ! जय हो !

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