विभूति नारायण राय के वक्तव्य पर मचे बवाल को लेकर अभी कुछ मान्यता बना ही पाता की रात को हिंदी के ख्यातनाम साहित्यकारों की लड़ाई देख मन कसैला हो गया. दरअसल, बात पूरी तरह से विरोध के लिए विरोध की थी. ठीक वैसे ही जैसे सामान्यतया होता है. स्टार न्यूज़ की इस पेशकश को मैं कथित फ्रेंड शिप डे पर सबसे आदर्श कार्यक्रम का दर्ज़ा देता हूँ जिसमे अपने-अपने दोस्तों को बचाने का शानदार उपक्रम किया गया. मुझे नहीं लगता की राय ने जो कहा वो किसी राष्ट्रीय रहस्य से पर्दा उठाने जैसा था. हाँ, सन्दर्भ गलत ले लिए. महिला लेखिकाओं को चोट लगी, यह गलत था, गलत हुआ. उन्हें इस तरह किसी समूह पर टिप्पणी करने के अपने गुप्त एजेंडे के लिए एक समाज को अपमानित करने का हक़ नहीं बनता.
अपने-अपने सच को जीना गलत नहीं है लेकिन थोपना निहायत ही गैर जिम्मेदाराना है. राय हो या मैत्रेयी पुष्प. सभी को अपनी बात कहने का हक़ है लेकिन दोनों ही प्रतिबद्ध लेखक हैं इसलिए उन से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि किसी दूसरे की लोकप्रियता से चिढ़ते हुवे, अपनी कुंठा निकाले. वैसे भी हिंदी का कोई खास भला इस तरह के विवादों से नहीं होने वाला हे. कल अगर यह कहना पड़ा के ऐसे लेखकों से भी हिंदी का भला नहीं हो रहा है तो शायद समूह की सुरक्षा में चल रहे सृजन को बचाने न तो राजेंद्र यादव आयेंगे और ना ही भारत भरद्वाज को सुना जायेगा.
वास्तव में हिंदी का भला करना है तो रचाव पर ध्यान देना होगा. प्रतिबद्ध हो कर लिखना बड़ा दुष्कर है. लेकिन दूसरे के लिखे हुवे की खुद से टोन नहीं मिलने पर चिढना बिल्कुल भी श्रेयष्कर नहीं.
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